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________________ ५८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रथम पंक्ति में शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय और दूसरी पंक्ति में प्रमाण का विषय है। इस वस्तु अधिकार में जो द्रव्य गण पर्याय उत्पाद व्यय धौव्य का निरूपण किया है उस पर इन चार पद्यों द्वारा नय प्रमाण को घटित करके दिखलाया है। गुर-व्यवहार भेद का प्रतिपादक है, निश्चय भेद का निषेधक है - अभेद का प्रतिपादक है और प्रमाण भेदअभेद दोनों का प्रतिपादक है! नोट-तीनों दृष्टियों का ज्ञान परम आवश्यक है। दृष्टि परिज्ञान सत स्वभाव से ही अनेक धर्मात्मक रूप बना हआ अखण्ड पिण्ड है। उसका जीव को ज्ञान नहीं है। उसका ज्ञान कराने के लिये जैन धर्म दृष्टियों से काम लेता है (१) जगत् में अभेद को बिना भेद कोई समझ नहीं सकता। अतः सब से प्रथम जीव को भेद भाषा से ऐसा परिज्ञान कराते हैं कि द्रव्य है , गुण है, पर्याय है। प्रत्येक का लक्षण सिखलाते हैं कि जो गुण पर्यायों का समूह है वह द्रव्य है इत्यादि रूप से। इस भेद रूप पद्धति को व्यवहार नय कहते हैं। यह दृष्टि द्रव्य को खण्ड-खण्ड कर देती है। इस दृष्टि का कहना है कि द्रव्य जुदा है, गुण जुदा है, पर्याय जुदा है। यहाँ तक कि एक-एक गुण, उसका एक-एक अविभाग प्रतिछेद और एक-एक प्रदेश तक जुदा है। यह सबकुछ सीखकर शिष्य को ऐसा भान होने लगता है कि जिस प्रकार एक वृक्ष में फल, फूल, पत्ते, स्कंध, मूल, शाखा जुदी-जुदी सत्ता वाले हैं और उनका मिलकर एक सत्ता वाला वक्ष बना है, उस प्रकार द्रव्य में अनेक अवयव हैं और उनका मिलकर बना हुआ एक द्रव्य पदार्थ है अथवा जैसे अनेक भिन्न-भित्र सत्तावाली दवाइयों से एक गोली बनती है वैसे गुण पर्यायों से बना हुआ द्रव्य है किन्तु पदार्थ ऐसा है नहीं। अतः यह तो पदार्थ का गलत ज्ञान हो गया । तब (२) आचार्यों को दूसरी दृष्टि से काम लेना पड़ा और उसको समझाने के लिये वे शिष्य से कहने लगे कि देख भाई यह बता कि आम में कितने गुण हैं ? वह सोच कर बोला चार । स्पर्श, रस, गंध और वर्ण । तब गुरु महाराज कहने लगे ठीक पर अब ऐसा करो कि रस तो हमें दे दो और रूप तुम ले लो, स्पर्श राम को दे दो और गंध श्याम को। अब शिष्य बड़े चक्कर में पड़ा और कहने लगा कि महाराज यह तो नहीं हो सकता क्योंकि आम तो अखण्ड पदार्थ है। उसमें ऐसा होना असंभव है। बस भाई जैसे उस आम में चारों का लक्षण जुदा-जुदा किया जाता है पर भित्र नहीं किये जा सकते ठीक उसी प्रकार यह जो द्रव्य है इसमें ये गुण पर्याय केवल लक्षण भेद से भिन्न-भिन्न हैं वास्तव में भिन्न नहीं किये जा सकते। यह तो तुझे अखण्ड सत् का परिज्ञान कराने का हमारा प्रयास था, एक ढंग था । वास्तव में वह भेद रूप नहीं है अभेद है।अब शिष्य की आँखें खुली और यह अनुभव करने लगा कि वह तो स्वतः सिद्ध निर्विकल्प अर्थात् भेद रहित अखण्ड है। इसको कहते हैं शुद्ध दृष्टि । यहाँ शुद्ध शब्द का अर्थ राग रहित नहीं किन्तु भेद रहित है। इस दृष्टि का पूरा नाम हैशद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि अर्थात वह दृष्टि जो सत् को अभेद रूप ज्ञान करावे।और आगे चलिये। गुरुजी ने शिष्य से पछा कि यह पुस्तक किसकी है तो शिष्य ने कहा महाराज मेरी । अब उससे पूछते हैं कि तू तो जीव है, चेतन है, पुस्तक तो अजीव है, जड़ है। यह तेरी कैसे हो गई। अब शिष्य फिर चक्कर में पड़ा और बहुत देर सोचने के बाद जब और कुछ उत्तर न बन पड़ा तो कहने लगा, महाराज इस समय मेरे पास है मैं पढ़ता हूँ। इसलिये व्यवहार से मेरी कह देते हैं वास्तव में मेरी नहीं है। अरे बस यही बात है। द्रव्य है, गुण है, पर्याय है, यहाँ भी भेद से ऐसा कह देते हैं, यहाँ भी यह व्यवहार है, वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव = निश्चय । जो द्रव्य को भेद रूप कहे वह व्यवहार और जो अभेद रूप कहे वह निश्चय । इसलिये इसका दूसरा नाम रक्खा निश्चय नय । इस प्रकार इसको शुद्ध द्रव्यर्थिक दृष्टि, निश्चय दृष्टि,भेद निषेधक दृष्टि, व्यवहार निषेधक दृष्टि, अखण्ड दृष्टि, अभेद दृष्टि, अनिर्वचनीय दृष्टि आदि अनेकों नामों से आगम में कहा है और आगे चलिये अब शिष्य को तीसरी दृष्टि का परिज्ञान कराते हैं। आचार्य कहने लगे कि अच्छा बताओ! आत्मा में कितने प्रदेश हैं ? वह बोला - असंख्यात् । व्यवहार से या निश्चय से? व्यवहार से, क्योंकि अब तो यह जान चुका था कि भेद व्यवहार से है। और फिर पूछा कि निश्चय से कैसा है तो बोला अखण्ड देश। शाबाश तू होनहार है हमारी बात समझ गया। देख वे जो व्यवहार से असंख्यात् है वे ही निश्चय से एक अखण्ड देश है। इसी
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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