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________________ प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य भवति मतम् । गुणपर्ययवद्दव्यं पर्यायार्थिकनयस्य पक्षोऽयम् ॥ ७४७ ॥ अर्थ - तत्व (द्रव्य ) अनिर्वचनीय (अभेद-अखण्ड ) है यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का कहना है । द्रव्य, गुणपर्यायवाला है (भेदरूप है ) यह पर्यायार्थिक नय का कहना है। ५७ भावार्थ-तत्व में अभेद बुद्धि का होना शुद्धद्रव्यार्थिक नय है और उसमें भेद बुद्धि का होना पर्यायार्धिक नय है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि का कथन ८, ८४, ८८, २१६, २४७ में किया है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि का कथन ७२, ७३, ८६, ८४, ८८, २४७ में किया है। अनिर्वचनीय, अभेद, अखण्ड, शुद्ध, निश्चय पर्यायवाची हैं। अभेद के द्योतक हैं। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव जास्त्यन्यत् । गुणपर्ययतादिदं तदेव तवं तथा प्रमाणमिति ॥ ७४८ ॥ अर्थ- जो द्रव्य, अनिर्वचनीय है ( अखण्ड है) वही द्रव्य, गुण-पर्यायवाला है ( भेद रूप है ) दूसरा नहीं है। तथा जो द्रव्य, गुणपर्यायवाला है (भेद रूप है) वही द्रव्य, अनिर्वचनीय है ( अखण्ड है ) । इस प्रकार भेद- अभेद दोनों रूप द्रव्य का कहने वाला प्रमाण है। भावार्थ ७४७-४८ - ( १ ) शुद्ध द्रव्यार्थिक नय वस्तु को अभेद रूप अखण्ड बतलाता है ( २ ) पर्यायार्थिक नय वस्तु को भेद रूप-खण्ड बतलाता है । ( ३ ) प्रमाण वस्तु को भेद-अभेद दोनों रूप बतलाता है। जो भेद रूप है वही अभेद रूप है यह प्रमाण के बोलने की रीति है। ७४७-४८ इकट्ठे हैं । ७४७ की प्रथम पंक्ति में शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का, दूसरी पंक्ति में पर्यायार्थिक नय का और ७४८ में प्रमाण का विषय बतलाया है। प्रमाण दृष्टि से द्रव्य का लक्षण २६१ की प्रथम पंक्ति में कहा है। यद्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणस्तन्न दव्यमिति चार्यात् । पर्यायोऽपि यथास्यात् ऋजुनयपक्ष: स्वपक्षमात्रत्वात् ॥ ७४९ ॥ अर्थ - पदार्थ रूप से जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है, जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है। उसी प्रकार पर्याय भी पर्याय ही है, द्रव्य गुण नहीं है। यह पर्यायार्थिक नय का कहना है क्योंकि यह द्रव्य गुण पर्याय को भिन्न-भिन्न मानकर भिन्न रूप से ही अपने विषय को कहने वाला है। (यहाँ ऋजुसूत्र नय का अर्थ पर्यायार्थिक नय है। पद्य बनाने के कारण पर्यायवाची शब्द का प्रयोग कर लिया है )। यदिदं द्रव्यं स गुणो योऽपि गुणो द्रव्यमेतदेकार्थात् । विवक्षितः प्रमाणपक्षोऽयम् ॥ ७५० ॥ तदुभयपक्षदक्षो अर्थ - क्योंकि द्रव्य गुण का एक अर्थ ( पदार्थ-अभेद वस्तु) है, इसलिये जो द्रव्य है, वही गुण है। जो गुण है, वही द्रव्य है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का पक्ष है तथा भेद-अभेद इन दोनों पक्षों को कहने में समर्थ विवक्षित जो पक्ष है वह प्रमाण का पक्ष है जैसे जो द्रव्य, गुण-पर्यायवाला है; वही उत्पाद व्यय धौव्य युक्त है तथा वही अखण्ड सत् अनिर्वचनीय है। " भावार्थ ७४९-५०- ( १ ) जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है तथा जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है परन्तु गुण गुण ही है तथा द्रव्य - द्रव्य ही है। इसी प्रकार जो पर्याय है, वह पर्याय ही है पर द्रव्य या गुण नहीं है। इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्याय को भिन्न-भिन्न कहना व्यवहार नय का विषय है तथा ( २ ) जो द्रव्य है, वही गुण है और जो गुण है, वही द्रव्य है कारण 'गुणसमुदायों द्रव्यं, इस सिद्धान्त में सम्पूर्ण गुणों को ही द्रव्य कहा है। इसलिए गुण और द्रव्य परस्पर भिन्न नहीं हैं परन्तु उक्त प्रकार से एक ही अर्थवाला है। इसलिए गुण और द्रव्य को एक अखण्ड कहना यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है- विषय है तथा ( ३ ) इन दोनों नयों के पक्ष को जोड़ रूप युगपत विषय करना जैसे जो भेद रूप है वही अभेद रूप है यह प्रमाण का विषय है। श्लोक ७४९-५० इकट्ठे हैं । ७४९ में पर्यायार्थिक नय का विषय, ७५० की
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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