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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - ऊपर कही हुईं व्यवस्था ही ठीक व्यवस्था है और तीनों को एक साथ मानने से ही यह व्यवस्था बन सकती है । तीनों में से किसी एक का अथवा दो का अभाव मानने से बाकी के दो अथवा एक भी नहीं ठहर सकता है। अथ तद्यथा हि सर्ग केवलमेकं हि मृगयमाणत्य |
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असदुत्पादो वा स्यादुत्पाटो वा न कारणाभावात् ॥ २५६ ॥
अर्थ - उपर्युक्त को ही स्पष्ट करते हैं कि जो केवल एक उत्पाद को ही मानता है उसके मत में असत् का उत्पाद होने लगेगा अथवा कारण का अभाव होने से उत्पाद ही न होगा |
अप्यथ लोकयतः किल संहारं सर्गपक्षनिरपेक्षम् ।
भवति निरन्वयनाशः सतो न नाशोऽथवाप्यहेतुत्वात् ॥ २५७ ॥
अर्थ-उत्पाद पक्षनिरपेक्ष केवल व्यय को ही जो मानता है, उसके यहाँ सत् का निरन्वय सर्वथा नाश हो जायेगा अथवा बिना कारण उसका माना हुआ नाश भी नहीं हो सकता ।
अथ च धौव्यं केवलमेकं किल पक्षमध्यवसतश्च । द्रव्यमपरिणालि स्थापरिनमात्र जापि तद्धौव्यम् ॥ २५८ ॥
अर्थ - इसी प्रकार जो उत्पाद व्यय निरपेक्ष केवल ध्रौव्य पक्ष को ही स्वीकार करते हैं, उनके मत में द्रव्य अपरिणामी ठहरेगा और द्रव्य के अपरिणामी होने से उसके धौव्य भी नहीं बन सकता है।
अथ
च धौव्योपेक्षितमुत्पादादिद्वयं प्रमाणयतः |
सर्व क्षणिकमिवैतत् सदभावे वा व्ययो न सर्गश्च ॥ २५९ ॥
अर्थ - ध्रौव्य निरपेक्ष केवल उत्पाद और व्यय इन दो को ही प्रमाणभूत मानता है उसके यहाँ सभी क्षणिक की तरह हो जायगा । अथवा सत् पदार्थ के अभाव में न तो व्यय ही बन सकता है और न उत्पाद ही बन सकता है।
एतद्दोषभयादिह प्रकृतं चास्तिवयमिच्छता पुंसा । उत्पादादीनामयमविनाभावे ऽवगन्तव्यः
॥ २६० ॥
अर्थ - ऊपर कहे हुये दोषों के भय से आस्तिक्य के चाहने वाले पुरुष को प्रकृत में उत्पाद आदिक तीनों का ही अविनाभाव मानना चाहिये ।
भावार्थ - तीनों एक साथ परस्पर सापेक्ष हैं, यही निर्दोष सिद्ध है।
प्रमाण - उत्पाद, व्यय, धौव्य का सब विषय श्री प्रवचनसार गाथा ९९, १००, १०१, १०२, १०४, १०५ पर से लिया है।
नोट- वस्तु निरूपण महा अधिकार में उत्पाद व्यय ध्रौव्य को वर्णन करने वाला पांचवां अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ और वस्तु निरूपण पहला महा अधिकार भी समाप्त हुआ ।
परिशिष्ट
वस्तु का प्रमाण लक्षण
गुणपर्ययतद्द्द्रव्यं यत्तदुद्व्ययादियुक्तं
उक्तं
सत् ।
अथ वस्तुस्थितिरिह किल वाच्याऽनेकान्तबोधशुद्ध्यर्थम् ॥ २६१ ॥
अर्थ- जो द्रव्य, गुण पर्याय वाला है वही द्रव्य, उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् है । यह द्रव्य का लक्षण प्रमाण दृष्टि से कहा ! अब अनेकान्त ज्ञान की शुद्धि के लिए वस्तु के स्वरूप का विशेष विचार करते हैं ।
द्रव्य गुण पर्याय पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७४७ से ७५० तक * जो तत्काल समझने को आगे दिये जा रहे हैं।
* ये श्लोक इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के अन्त के हैं। भावार्थ के लिये आगे 'दृष्टि परिज्ञान' देखिये ।