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________________ प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक को कहते हैं प्रमाण दृष्टि। जो ऐसा है वही ऐसा है। यही इसके बोलने की रीति है। यह पदार्थ को भेदाभेदात्मक कहता है अर्थात् जो भेद रूप है वही अभेदरूप है। इस प्रकार तीनों दृष्टियों द्वारा पदार्थ का ठीक-ठीक बोध हो जाता है और जैसा पदार्थ स्वत: सिद्ध बना हुआ है वैसा वह ठीक ख्याल में पकड़ में आ जाता है। सो ग्रन्थकार ने यहाँ पहली व्यवहार दृष्टि कामरिझान ७७की दूसरी सबा ७१में कराया है। दूसरी निश्चय दृष्टि का परिज्ञान ७४७ की प्रथम पंक्ति तथा ७५० की प्रथम पंक्ति में कराया है और तीसरी प्रमाण दृष्टि का परिज्ञान ७४८ में तथा ७५० को दूसरी पंक्ति में कराया है। और इस ग्रंथ में नं.८ से ७० तक निश्चय अभेद दृष्टि से सत् का निरूपण किया है और ७१ से २६० तक भेद दृष्टिव्यवहार दृष्टि से सत् का निरूपण किया है और २६१ में तीसरी प्रमाण दृष्टि से सत् का निरूपण किया है। श्लोक नं.८४,८८,२१६ तथा २४७में भेद और अभेद दृष्टियों दिखलाया है। इस प्रकार द्रव्य के भेदाभेदात्मक स्वरूप को दिखलाया है। अब दूसरी बात यह जानने की है कि ऐसे भेदाभेदात्मक द्रव्य में दो स्वभाव पाये जाते हैं एक तो यह कि वह अपने स्वरूप को ( स्वभाव को) त्रिकाल एक रूप बनाए रखता है और दूसरा स्वभाव यह कि वह उस स्वभाव को बनाये रखते हुये भी प्रति समय स्वतन्त्र निरपेक्ष स्वभाव या विभाव रूप परिणमन किया करता है और उस परिणमन में हानिवृद्धि भी होती है। स्वभाव का नाम है द्रव्य,सत्त्व, वस्तु, पदार्थ आदि और उस परिणमन का नाम है पर्याय, अवस्था, दशा, परिणाम आदि। यहाँ भी द्रव्य को दो रूप से देखा जाता है जब स्वभाव को देखना है तो सारे का सारा द्रव्य स्वभावरूप, त्रिकाल एक रूप, अवस्थित नजर आयेगा। इसको कहते हैं द्रव्य दृष्टि स्वभाव दृष्टि,अन्वय दृष्टि, त्रिकाली दृष्टि, निश्चय दूष्टि, सामान्य दृष्टि आदि। जब अवस्था को देखना हो तो सारे का सारा द्रव्य परिणाम रूप, पर्यायरूप, अनवस्थित, हानिवृद्धि रूप, अवस्था रूप दृष्टिगत होगा। इसको कहते हैं पर्याय दृष्टि, व्यवहार दृष्टि, विशेष दृष्टि आदि। यहाँ यह बात खास ध्यान रखने की है कि ऐसा नहीं है कि त्रिकाली स्वरूप तो किसी कोठे में जुदा पड़ा है और पर्याय का स्वरूप कहीं ऊपर धरा हो। पर्यायरूप परिणमन उस स्वभाववान् का ही है। उनमें दोनों धर्मों के प्रदेश तो भिन्न हैं नहीं पर स्वरूप दोनों इस कमाल से वस्तु में रहते हैं कि उसको आप चाहे जिस दृष्टि से देख लो हूबहू वैसी की वैसी नजर आयेगी। जैसे एक जीव वर्तमान में मनुष्य है। अब यदि स्वभाव दृष्टि से देखो तो वह चाहे मनुष्य है या देव, सिद्ध है या संसारी, जीव तो एक जैसा ही है। इसीलिये तो जगत् में कहा जाता है कि जो कता है वह भोगता है। सिद्ध संसारी में कहीं जीव के स्वरूप में फर्क नहीं आ गया है और यदि पर्याय दृष्टि से देखें, परिणाम दृष्टि से देखें तो कहां देव कहाँ मनुष्य, कहाँ संसारी कहाँ सिद्ध । यह परिणमन स्वभाव का कमाल है कि स्वकाल की योग्यता अनुसार कहीं स्वभाव के अधिक अंश प्रगट हैं कहीं कम अंश प्रगट हैं। केवल प्रगटता-अप्रगटता के कारण, अवगाहन के कारण, भूत्वाभवन के कारण, आकारान्तर के कारण यह अन्तर पड़ा है। स्वभाव को बनाये रखना अगुरुलघु गुण का काम है। परिणमन कराते रहना द्रव्यत्व गुण का काम है। क्या कहें वस्तु ही कुछ ऐसी बनी हुई है। इस ग्रन्थ में इसको ६५, ६६,६७ और १९८ में लगाकर दिखलाया है। ____ अब एक बात और रह गई । कहीं द्रव्यदृष्टि प्रथमवर्णित अभेद अखण्ड के लिये प्रयोग की है और पर्याय दृष्टि भेद के लिए प्रयोग की है और कहीं द्रव्य दृष्टि स्वभाव के लिए और पर्याय दृष्टि परिणाम के लिये प्रयोग की जाती है। अब कहाँ क्या अर्थ है यह गुरुगम से भली-भाँति सीख लेने की बात है, वरना अर्थ का अनर्थ हो जायगा और पदार्थ का भान न होगा । जितना ग्रन्थ आप पढ़ चुके हैं इसमें नं.८४,८८, २१६, २४७ में अभेद के लिये द्रव्यदृष्टि और भेद के लिए पर्याय दृष्टि का प्रयोग किया है। और नं. ६५, ६६, ६७, १९८ में स्वभाव के लिये द्रव्य दृष्टि और परिणाम के लिए पर्याय दृष्टि का प्रयोग किया है। आप सावधान रहें इसमें बड़े-बड़े शास्त्रपाठी भी भूल कर जाते हैं। अध्यात्म के चक्रवर्ती श्री अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नं.५८ में लिखा है कि इस अज्ञानी आत्मा को वस्तु स्वरूप का भान कराने में नयचक्क को चलाने में चतुर ज्ञानी गुरु ही शरण हो सकते हैं। सद्गुरु बिना न आज तक किसी ने तत्त्व *देखिये श्री समयसार गाथा ११६ से १२५ तक तथा कलश नं. ६४, ६५ तथा श्री पंचास्तिकाय गा.६२ टीका तथा श्री तत्त्वार्थसार तीसरे अजीव अधिकार का श्लोक नं. ४३, प्रवचनसार गा. १६, ९५ टीका, पंचाध्यायी दूसरा भाग १०३०।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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