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इसके मिटने का नाम है सम्यग्दर्शन। वह कैसे मिटे ? वह जब मिटे जब आपको यह परिज्ञान हो कि प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र सत् है। अनादि निधन है। स्वसहाय है। उसका अच्छा या बुरा परिणमन सोलह आना उसी के आधीन है। जब तक स्वतन्त्र सत् का ज्ञान न हो तब तक पर में एकत्व, कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव न किसी का मिट सकता है न मिटा है। इसलिए पहले ज्ञान गण के द्वारा सत का ज्ञान करना पड़ता है क्योंकि वह ज्ञान सम्यग्दर्शन में कारण पड़ता ही है। पर व्याप्ति इधर से है उधर से नहीं है, अर्थात् सब जानने वालों को सम्यग्दर्शन हो ही ऐसा नहीं है किन्तु जिनको होता है उनको सत् के ज्ञानपूर्वक ही होता है। इससे पता चलता है कि ज्ञानगुण स्वतन्त्र है और श्रद्धा गुण स्वतन्त्र है।
टान्त भी मिलते हैं। अभव्यसेन जैसे ग्यारह अल के पाठी प्रदान न करने से नरक में चले गये और श्रद्धा करने वाले अल्प श्रुति भी मोक्षमार्गी हो गये। इसलिए पण्डिताई दूसरी चीज है और मोक्षमार्गी दूसरी चीज। बिना मोक्षमार्गी हुए कोरे ज्ञान से जीव का रञ्च मात्र भी भला नहीं है। पण्डिताई की दृष्टि तो भेदात्मक ज्ञान, अभेदात्मक ज्ञान और उभयात्मक ज्ञान है सो आपको करा ही दिया है।
जैसे जो श्रद्धा गुण से काम न लेकर केवल मात्र ज्ञान से काम लेते हैं वे कोरे पंडित रह जाते हैं और मोक्षमार्गी नहीं बन पाते। उसी प्रकार जो श्रद्धा से काम न लेकर पहले चारित्र से काम लेने लगते हैं और बाबाजी बनने का प्रयत्न करते हैं वे केवल मान का पोषण करते हैं। मोक्षमार्ग उनमें कहाँ ? जबतक परिणति, स्वरूप को न पकड़े तबतक लाख संयम उपवास करें उनसे क्या? श्री समयसारजी में कहा है, कोरा क्रियाओं को करता मर भी जाये तो क्या ? अरे यह तो भान कर कि शुद्ध भोजन की, पर पदार्थ की तथा शुभ या अशुभ शरीर की क्रिया तो आत्मा कर ही नहीं सकता। इनमें तो न पाप है और न पुण्य है, न धर्म है। यह तो स्वतन्य दूसरे द्रव्य की क्रिया है। अब रही शुभ विकल्प की बात वह आस्तव तत्त्व है, बन्ध है, पाप है। सोच तो तू कर क्या रहा है और हो क्या रहा है। भाई जबतक परिणति स्वरूप को न ग्रहे, ये तो पाखण्ड है। कोरा संसार है। पशुवत् क्रिया है। छहढाला में प्रतिदिन तो पढ़ते हैं :
"मुनि व्रतधार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।" वह तो शुद्ध व्यवहार की दशा कही। यहाँ तो व्यवहार का भी पता नहीं और समझता है अपने को मोक्ष का ठेकेदार या समाज में महान ऊँचा।
मोक्षमार्ग में नियम है कि विकल्प (राग) संसार है और निर्विकल्प ( वीतरागता) मोक्षमार्ग है। अब वह राग कैसे मिटे और वीतरागता कैसे प्रकट हो? उसका विचार करना है। देखिये विषय कषाय का राग तो है ही संसार का कारण। इसमें तो देत ही नहीं है। जिनका अभी राग जरा भी नहीं छटावेतो करेंगे ही क्या? ऐसे अपात्रों की तो यहाँ बात ही नहीं है। यहाँ तो मुमुक्षुओं का प्रकरण है। सो उनसे कहते हैं कि भाई यह तो ठीक है कि वस्तु भेदाभेदात्मक ही है, पर भेद में यह खराबी है कि उसका अविनाभावी विकल्प उठता है और वह आस्रव बन्ध तत्त्व है। इसलिए यह भेद को विषय करनेवाली व्यवहार नय, तेरे लिए हितकारी नहीं है। अभेद को बताने वाली जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसका विषय वचनातीत है, विकल्पातीत है। पदार्थ का ज्ञान करके संतुष्ट हो जा। भेद के पीछे मत पड़ा रह। यह भी विषयकषाय की तरह एक बीमारी है। यह तो केवल अभेदवस्तु पकड़ने का साधन था। जो वस्तु तूने पकड़ ली। अब व्यवहार से ऐसा है , व्यवहार से ऐसा है, अरे इस रागनी को छोड़ और प्रयोजन भूत कार्य में लगा वह प्रयोजन भूत कार्य क्या है ? सुन! हम तुझे सिखा आये हैं कि प्रत्येक सत् स्वतन्त्र है। उसका चतुष्ट्य स्वतन्त्र है। इसलिए पर को अपना मानना छोड़। दूसरे जब वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र है तो तू उसमें क्या करेगा? अगर वह तेरी की हुई परिणमेगी तो उसका परिणमन स्वभाव व्यर्थ हो जायेगा और जो शक्ति उसमें है ही नहीं वह दूसरा देगा भी कहाँ से? इसलिए मैं उसका ऐसा परिणमन करा दूं या यह यूँ परिणमें तो ठीक। यह पर की कर्तृत्वबुद्धि छोड़ा तीसरे जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छू नहीं सकता तो भोगना क्या ? अतः यह जो पर के भोग की चाह है, इसे छोड़। यह तो नास्ति का उपदेश है, किन्तु इस कार्य की सिद्धि अस्ति' से होगी और वह इस प्रकार है कि जैसा तुझे सिखाया है।