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२. आचार्य अमृतचन्द्रजी को ही उन्होंने अपना गुरु माना है। उन्होंने यह लिखा है कि कुछ विद्वानों ने इसे कविवर राजमल्लजी की कृति मानी है।
पाठकों की सुविधा के लिए हम इस विषय में, जो महानुभाव जानने की ज्यादा रुचि रखते हैं तो, निम्नलिखित नोट दे रहे हैं वहाँ से देखने का कष्ट करें। इस विषय में वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक और साहित्य सेवी पण्डित जुगल किशोरजी मुख्तार ने छानबीन कर लिखा है यह ग्रन्थ कविवर राजमल्लजी द्वारा लिखा गया है जिनका सर्वप्रथम इस विषय में लेख'वीर' नामक पत्र के वर्ष ३, अङ्क ११-१२ में प्रकाशित हुआ था। अगर कोई विद्वान् इस विषय में अधिक जानना चाहते हैं तो श्री देवकीनन्दनजी की टीका में स्व. श्री फूलचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना में से देख सकते हैं। इसके अलावा इन्हीं पंडितजी ने 'ग्रन्थराज पञ्चाध्यायी" नाम पर व्याख्या की है वो भी पठनीय है जो इस प्रकार है - "अबतक पञ्चाध्यायी का जो भाग उपलब्ध हुआ वह बहुत ही थोड़ा है। वास्तव में वह एक अध्याय भी प्रतीत नहीं होता। साधारणतः उपलब्ध भाग डेढ़ अध्याय समझा जाता है। इसका इससे पूर्व तक चार बार प्रकाशन हो चुका है। उन सब में इसे इसी रूप में अंकित किया गया है। हमने भी इसी आधार से इसे दो भागों में विभक्त कर दिया है। किन्तु ग्रन्धकार ने अब तक मुद्रित प्रतियों में जहाँ प्रथम अध्याय समाप्त होता है वहाँ ऐसी कोई सूचना नहीं दी है। मंगलाचरण के बाद उत्थानिका में विषय का निर्देश करते हुए मात्र वे इतना ही संकेत करते हैं कि प्रथम
य वस्तुको सकरके उदातर धर्म विशिष्ट वस्तु को सिद्ध करेंगे। बहुत सम्भव है कि यह उल्लेख प्रथम अध्याय के विषय की सूचना मात्र हो। यदि यह अनुमान ठीक है तो कहना होगा कि ग्रन्थ का उपलब्ध भाग एक अध्याय का भी एक हिस्सा है।''
३."तत्त्व तो गुरुदेव का है। वे शाह हैं। हम तो उनके मुनीम हैं, मालिक की अमानत को आप तक पहुँचा दिया है। इसमें जितना सत्य तत्त्व है, वह उनका दिया हुआ है और जो भूल है वह मुझ पामर की है।"
४."पूज्य श्री रामजीभाई सम्पादक 'आत्मधर्म' का मुझ पर महान् उपकार है, जिन्होंने मुझे इस ग्रन्थ को विद्यार्थी के रूप में कई बार पढ़ाया है, मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। मुझे सदैव उनकी याद बनी रहती है।"
५."पुस्तक जटिल जरूर है। हमने भान खोलने का भरसक प्रयत्न किया है। अगर सम्यक्त्व प्राप्ति की इच्छा है तो सत् को समझना ही पड़ेगा। सत् समझने के लिए जगत में इससे बढ़िया ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यदि रूचि से बारबार पढ़ेंगे तो पदार्थ अवश्य समझ में आवेगा।
६.श्री सरनारामजी ने अपनी पुस्तकों के अन्त में"दृष्टि परिज्ञान'' नाम से उस पुस्तक के विषय का सूक्ष्म में वर्णन लिखा है जो सभी वास्तव में पठनीय हैं। जैसा कि प्रथम पुस्तक के अन्त में लिखा है :
"यों तो आत्मा अनन्त गुणों का पिंड है, पर मोक्षमार्ग का तीन गुणों से प्रयोजन है। ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र। सबसे पहले जब जीवको हित की अभिलाषा होती है तो ज्ञान से काम लिया जाता है। पहले ज्ञान द्वारा पदार्थ का स्वरूप, उसका लक्षण तथा परीक्षा सीखनी पड़ती है। पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। अतः पहले सामान्य पदार्थ का ज्ञान करना होता है, फिर विशेष का, क्योंकि जो वस्तु सत् रूप है वही तो जीव रूप है। सामान्य वस्तु को सत् भी कहते हैं। सो पहले उसको सत् का परिज्ञान कराया जा रहा है। सत् का आपको अभेदरूप, भेदरूप, उभयरूप हर प्रकार से ज्ञान कराया। इसको कहते हैं ज्ञानदृष्टि या पण्डिताई की दृष्टि। इससे जीव को पदार्थ ज्ञान होता चला जाता है और वह ग्यारह अङ तक पढ लेता है पर मोक्षमार्गी रञ्च भी नहीं बनता। यह ज्ञान मोक्षमार्ग में कब सहाई होता है जबकि दसरा जो श्रद्धा गुण है उससे काम लिया जाये, अर्थात् मिथ्यादर्शन के अभाव से सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया जाये। वह क्या है? अनादिकाल की जीव की पर में एकत्व बुद्धि है। अहंकार-ममकार भाव है। अर्थात् यह है सो मैं हूँ और यह मेरा है। तथा पर में कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव अर्थात् मैं पर की पर्याय फेर सकता हूँ और मैं पर पदार्थ को भोग सकता हूँ। १. प्रथम अध्याय, श्लोक ७