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________________ ग्रन्धराज श्रीपञ्चाध्यायी व्यतिरेक और क्रम में अन्तर का निरूपण ( १७० से १७५ तक) शंका जनु यथास्ति सभेदः शब्दकृतो भवतु वा तदेकार्थात् । व्यतिरेककमयोरिह को भेदः पारमार्थिकरित्वति चेत् ॥ १७० ।। अर्थ- यदि व्यतिरेकीपन और क्रमवर्तीपन में शब्द भेद ही माना जाय तब तो ठीक है क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है। यदि इन दोनों में अर्थ भेद भी माना जाता है तब बतलाना चाहिये कि वास्तव में इन दोनों में क्या भेद है? - भावार्थ-व्यतिरेकी में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से जो व्यतिरेक बतलाया था उसमें काल व्यतिरेक पर्याय में होता है। एक समय की पर्याय दूसरे समय की पर्याय से भिन्न है, यह कालव्यतिरेक है।अब शंकाकार कहता है कि व्यतिरेकी भी समय-समय की पर्याय को कहते हैं और क्रमवती भी समय-समय की पर्याय को कहते हैं। फिर इन दोनों में केवल नाम का ही भेद है या कुछ भाव सम्बन्धी भी भेद है क्या ? समाधान १७१,से १७५ तक तन्न यतोऽस्ति विशेष: सदंशधर्मे द्वयोः समानेऽपि । स्थूलेख्वित पर्यायेष्वन्तीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः || १७१ ।। अर्थ-शंकाकार का यह कहना कि "व्यतिरेकी और क्रमवती दोनों का एक ही अर्थ है" ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्य के पूर्वसमयवर्ती और उत्तरसमयवर्ती अंशों में समानता होने पर भी विशेषता है। जिस प्रकार स्थूल पर्यायों में सूक्ष्म पर्यायें अन्तलीन (गर्भित ) हो जाती हैं परन्तु लक्षण भेद से भिन्न हैं। उसी प्रकार क्रम में व्यतिरेक गर्भित है। पर लक्षण भेद से भिन्न हैं। भावार्थ-द्रव्य का प्रतिक्षण जो परिणमन होता है उसके दो भेद हैं। एक समयवर्ती परिणमन की अपेक्षा द्वितीय समयवर्ती परिणमन में कुछ समानता भी रहती है और कुछ असमानता भी रहती है। दृष्टान्त के लिए बालक को ही ले लीजिए। बालक की हरएक समय में अवस्थायें बदलती रहती हैं। यदि ऐसा न माना जावे तो एक वर्ष बाद बालक में पुष्टता और लम्बाई नहीं आनी चाहिये और वह एक दिन में नहीं आ जाती है, प्रति समय बढ़ती रहती है परन्तु हमारी दृष्टि में बालक की जो पहले समय की अवस्था है वही दूसरे समय में दीखती है। इसका कारण वही सदृश परिणमन है। जो समय-समय का असदृश अंश है वह सूक्ष्म है। इन्द्रियों द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता है। सदश परिणमन अनेक समयों में एकसा है। इसलिये कहा जाता है कि स्थूल पर्याय चिरस्थायी हैं । स्थूल पर्यायों में यद्यपि सूक्ष्म पर्यायें गर्भित हो जाती हैं तथापि लक्षण भेद से वे भिन्न-भिन्न हैं। इसी प्रकार क्रम में यद्यपि व्यतिरेक गर्भित हैं तो भी लक्षण भेद से भेद है सोई आगे कहा जाता है तन्न व्यतिरेकः स्यात् परस्पराभावलक्षणेन यथा । अंशविभागः पृथगिति सदृशांशाजां सतामेत ॥ १७२ ॥ अर्थ-व्यतिरेक वहाँ होता है जहाँ द्रव्यों के सदृश अंशों में परस्पर के अभाव रूप से पृथक्-पृथक् अंश विभाग किया जाता है। भावार्थ--कम और व्यतिरेक का अन्तर समझाने के पहले व्यतिरेक को समझाते हैं। व्यतिरेक का लक्षण परस्पर अभाव है जैसे यह बहीं है दूसरा नहीं है। दूसरा-दूसरा ही है पहला नहीं है। मनुष्य मनुष्य ही है देव नहीं है। देव देव ही है मनुष्य नहीं है। अब बताते हैं कि यह कैसे होता है तो कहते हैं कि सत् रूप जीव द्रव्य तो वही है और मनुष्य तथा देव दोनों में उसके सत् अंश भी बराबर हैं किन्तु उस सत् के उन्हीं सदृश अंशों का जो मनुष्य रूप विभाग है वह जुदा है और उसी सत् के उन्हीं सदृश अंशों का जो देव रूप विभाग है वह जुदा है। इस जुदापने को व्यतिरेकी कहते हैं।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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