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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
चौथा अवान्तर अधिकार
पर्यायों का निरूपण १६४ से १९८ तक उक्तं हि गुणानामिह लक्ष्य तल्लक्षण यथाऽगमतः।
सम्प्रति पर्यायाणां लक्ष्य तलक्षणं च वक्ष्यामः || १६५॥ अर्थ-इस ग्रन्थ में आगम के अनुसार गुणों का लक्ष्य और लक्षण तो कहा गया। अब पर्यायों का लक्ष्य और लक्षण कहते हैं।
कमवर्सिनो ह्यनित्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः ।
उत्पाटव्ययरूपा अपि च धौव्यात्मकाः कथञ्चिच्यं ॥ १६५ ।। अर्थ-पर्यायें क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पादव्ययरूप और कचित् धौव्य स्वरूप होती हैं।
तत्र व्यतिरेकित्वं प्रायः पागेव लक्षितं सम्यक् ।
अविशिष्टविशेषभितः क्रमतः संलक्ष्यते यथाशक्ति || १६६ ।। अर्थ-उनमें पर्यायों का व्यतिरेकीपना तो पहले गुणों के कथन में भले प्रकार सिद्ध किया जा चुका है। अब बाकी के लक्षण क्रम से यथाशक्ति यहाँ पर कहे जाते हैं। .
भावार्थ-एक द्रव्य के प्रदेशों में जो परस्पर अभाव है वह देशव्यतिरेकी पर्याय है। प्रत्येक प्रदेश का निज क्षेत्र भिन्नभिन्न है। यह क्षेत्र व्यतिरेकी पर्याय है। एक-एक समय की पर्याय भित्र-भिन्न है। यह काल व्यतिरेकी पर्याय है और एक-एक गुण के अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों की परस्पर भिन्नता है यह भाव व्यतिरेकी पर्याय है। व्यतिरेकी का लक्षण यह है "यह वही है दूसरा नहीं है और दूसरा भी पहला नहीं है, दूसरा दूसरा ही है। देखिये पूर्व श्लोक १४७ से १५२ तक।
क्रमवर्ती का निरूपण १६७ से १६९ तक अस्त्यत्र यः प्रसिद्धः कम इति धातुश्च पाटविक्षेपे ।
क्रमति कम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेषः || १६७।। अर्थ-पाद विक्षेप का अर्थ होता है कम से गमन करना अथवा क्रम से होना। इसी अर्थ में क्रमधातु प्रसिद्ध है। उसी का क्रम शब्द बना है। यह शब्द अपने अर्थ का उल्लंघन नहीं करता है।
वर्तन्ते तेन यतो, भवितुंशीलास्तथास्वरूपेण।
यटि चा स एव वर्ती येषां, क्रमवर्तीनरते एवार्थात् ॥ १६८ ॥ अर्ध-क्रम से जो वर्तन करें अथवा क्रम से जो होवें उन्हें क्रमवर्ती कहते हैं अथवा क्रमस्वरूप से होने का जिनका स्वभाव है उन्हें क्रमवर्ती कहते हैं। अथवा क्रमही जिनमें होता रहे उन्हें ही अनुगत अर्थ होने से क्रमवर्ती कहते हैं ऐसी कमवर्ती पर्यायें होती हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार चलते समय दोनों पांव क्रमशः एक के बाद एक ही चलते हैं। दोनों पैर कभी इकट्ठे नहीं चलते। उसी प्रकार पर्यायें भी क्रमश: एक के बाद एक चलती हैं। कभी दो पर्यायें इकट्ठी नहीं होती। अत: पर्यायों को क्रमवर्ती भी कहते हैं जैसे नारकी मनुष्य देव, ये क्रमवर्ती पर्यायें हैं।
अयमर्थः प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते चैकः।
अथ जप्टे सति तरिमन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथादेश || १६९ ।। अर्थ-पर्यायें क्रमवर्ती हैं, इसका यह अर्थ है कि जिस प्रकार पहले एक पर्याय हुई, फिर उसका नाश होने पर दूसरी हुई, उस दूसरी का भी नाश होने पर तीसरी हुई। इसी प्रकार पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश होने पर जो उत्तर-उत्तर पर्याय कम से होती जाती हैं इसी का नाम क्रमवर्ती है। सब पर्यायें अपने एक ही देश (द्रव्य) के आश्रय से उत्पत्ति विनाश करती हैं।