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________________ ग्रन्थराज श्री पज्वाध्यायी 'अर्थ' का निरूपण १५७ से १५९ तक मोहि सातार्था इति संज्ञया गुणा वाध्याः। तदपि न रूढिवशादिह किनवर्धाद्यौगिकं तदेवेति ॥ १७॥ अर्थ-और जो पहले कहा गया था कि गुण'अर्थ'इस नाम से भी कहने योग्य है। वह भी रूढ़िवश नहीं है किन्तु अर्थ से वह भी यौगिक ही है। स्यागताविति धातुस्तदूपोऽयं निरुच्यते तज्ज्ञैः। अन्वर्थोऽनुगतार्थाटनादिसंतानरूपतोऽपि गुणः ॥ १५८ ॥ अर्थ-'ऋ'यह एक धातु गति ( जाना) अर्थ में है।' अर्थ' यह शब्द उसका रूप उसके जाननेवालों ( वैयाकरणों) द्वारा कहा जाता है। गुण का अर्थ ' नाम 'अन्वर्थक'ही है क्योंकि जो गमन करे उसको अर्थ कहते हैं और गुण भी अनादि सन्तान रूप से साथ-साथ चले जाते हैं। अब इसी का भावार्थ ग्रन्थकार स्वयं अगले श्लोक द्वारा स्पष्ट करते हैं। अयमर्थः सन्ति गुणा अपि किल परिणामिनः स्वतः सिद्धाः ।। नित्यानित्यत्वादप्युत्पादादित्रयात्मका: सम्यक ॥ १५९ ॥ अर्थ-ऋधातु से बने हुए अर्थ शब्द का भाव यह है कि गुण भी नियम से स्वतः सिद्धपरिणामी हैं। इसलिये वे कथंचित् नित्य भी हैं और कथंचित् अनित्य भी हैं और इसी से उनमें उत्पाद, व्यय, धौव्य अच्छी तरह घटते हैं। गुणों के भेद १६० से १६३ तक अस्ति विशेषस्तेषां सति स समाने यथा गुणत्वेऽपि । साधारणास्ते एके केचिदसाधारणा गुणाः सन्ति ॥ १६०॥ अर्थ-यधपि गुणत्व सामान्य की अपेक्षा से सभी गुणों में समानता है तथापि उनमें विशेषता भी है। कितने ही उनमें साधारण गुण हैं और कितने ही असाधारण गुण हैं। साधारणास्तु यतरे ततरे नाम्ना गुणा हि सामान्याः। ते चासाधारणका यतरे ततरे ठाणा विशेषारख्या: ॥ १६१॥ अर्थ-जितने साधारण गुण हैं वे सामान्य गण कहलाते हैं और जितने असाधारण गण हैं वे विशेष भावार्थ-जोगण सामान्य रीति से हरएक द्रव्य में पाये जायें उन्हें तो सामान्य अथवा साधारण गण कहते हैं और जो गुण खास-खास द्रव्यों में ही पाये जावें उन्हें विशेष अथवा असाधारण गुण कहते हैं। अर्थात् जो सब द्रव्यों में रहें वे सामान्य और जो किसी-किसी द्रव्य में रहें वे विशेष कहलाते हैं। तेषामिह वक्तव्ये हेतुः साधारणैर्गुणैर्यस्मात् । द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्यविशेषरतु साध्यते वितरैः ॥ १६२ ।। अर्थ-ऐसा क्यों कहा जाता है? इसका कारण यह है कि साधारण गुणों से तो द्रव्य सामान्य सिद्ध किया जाता है और विशेष गुणों से द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है। संदृष्टिः सदिति गुणः स यथा द्रव्यत्वसाधको भवति । अथ च ज्ञान गुण इति द्रव्यविशेषरस्य साधको भवति || १६३ ।। अर्थ- उदाहरण इसप्रकार है कि सत् ( अस्तित्व ) यह गुण सामान्य द्रव्य का साधक है और ज्ञान गुण द्रव्य विशेष (जीव) का साधक है। भावार्थ-सत् गुण सभी द्रव्यों में समान रीति से पाया जाता है इसलिये सभी द्रव्य सत् कहलाते हैं परन्तु ज्ञान गुण सभी द्रव्यों में नहीं पाया जाता किन्तु जीव में ही पाया जाता है इसलिये ज्ञान विशेष गुण है और सत् सामान्य गुण है। इसी प्रकार सभी द्रव्यों में सामान्य गुण समान है और विशेष गुण जुदे-जुदे हैं। नोट-वस्तु निरूपण महा अधिकार में गुणत्व को निरूपण करनेवाला तीसरा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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