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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
तत एवं यथाऽनेके पर्यायाः सैषः लेति लक्षणतः।
व्यतिरेकिणश्च न गुणास्तथेति सोऽयं न लक्षणाभावात ॥ १५४॥ अर्थ-इसलिये जैसे पर्याय"यह वह नहीं है"इस लक्षण से अनेक हैं और इसीलिये व्यतिरेकी हैं। उस प्रकार अनेक भी गुण 'यह वह नहीं है" इस लक्षण के न घटने से व्यतिरेकी नहीं है।
भावार्थ-देव मनुष्य नहीं है और देव अपने को मनुष्य रूप नहीं दिखला सकता अतः वह व्यतिरेकी है किन्तु गुणों में यह बात नहीं है । जो ज्ञान है वह दर्शन नहीं है ऐसा नहीं है किन्तु जो ज्ञानरूप जीव है वहीं दर्शनरूप जीव है। पर्यायों में यह वह नहीं है ऐसा ही लक्षण घटता है किन्तु गुणों में यह वहीं है ऐसा ही लक्षण घटता है। इसी से पर्यायें व्यतिरेकी हैं और गुण अन्वयी हैं।
तल्लक्षणं यथा स्याज्ञानं जीवो य एव तावांश्च ।
जीवो दर्शनमिति वा तटभिज्ञानात स एव तावाश्च ॥ १५५। अर्थ-उस गुण के अन्वयपने का लक्षण इस प्रकार है कि जैसे 'ज्ञान जीव है ऐसा कहने पर जो जितना जीव आया। 'दर्शन जीव है' यह कहने पर भी वह ही जीव उतना ही आया। यह प्रत्यभिज्ञान से सिद्ध है।
भावार्थ-गुणों में अन्वय लक्षण ही घटता है। जिस समय जीव ज्ञान स्वरूप कहा जाता है उस समय वह उतना ही है और जिस समय जीव को दर्शन स्वरूप कहा जाता है उस समय भी वह उतनाही है। को कहने में "यह वही है"ऐसा ही एमश्रिज्ञान होना है।"यह महनहीं है"मानातिकी ज्ञान नहीं होता। इसलिये गुण अनेक होने पर भी अन्वयी एक है। व्यतिरेक नहीं है।
एष क्रमः सुरवादिषु गुणेषु वाच्यो गुरुपदेशाद्वा ।
यो जानाति स पश्यति सुखमनुभवतीति स एव हेतोश्च ॥ १५६ ॥ ___ अर्थ-गुरु-गम से यह क्रम सुखादि गुणों में भी लगा लेना चाहिये। जो जीव जानता है, वही देखता है और वही सुख को अनुभव करता है। इन सब कार्यों में "यह वही है" ऐसी ही प्रतीति होती है। इस कारण से गुण अनेक होकर भी व्यतिरेकी नहीं हैं किन्तु सब गुण एक गुण रूप हैं क्योंकि उनका अन्वय द्रव्य एक है।
गुण व्यतिरेकी नहीं किन्तु अन्वयी कैसे हैं ? द्रव्य अनन्त गुणों का तादात्म्य एक अखण्ड पिण्ड है और वह भी ऐसा पिण्ड है कि जिस गुण की विवक्षा करके उसे देखो, सारे का सारा द्रव्य उसी रूप प्रतीत होगा। यही गुणों में अन्वयीपना है जैसे एक सोने की लठ लीजिये। उसे पीलेपन की दृष्टि से देखिये तो सम्पूर्ण लठ पीली दृष्टिगत होगी, फिर भारीपन से देखिये सारी भारी, फिर चिकनेपन से देखिये सारी चिकनी। यद्यपि पीला भारी स्निग्ध लक्षण भेद से भिन्न हैं पर उनका अन्वय द्रव्य इस कमाल से एक है कि सब गुण एक में अन्तलीन होकर अपने को उस विवक्षित गुण रूप ही उपस्थित कर देते हैं। यही गुणों का अन्वयीपना है। पर्यायों में यह बात नहीं। जो देव रूप है वह अपने को मनुष्य रूप नहीं दिखला सकती किन्तु भिन्नभिन्न रूप ही दिखलायेंगी अतः वह व्यतिरेकी ही है। वे वास्तव में भिन्न-भिन्न हैं। इसी प्रकार उसको रूप की दृष्टि से देखिये सारा पीला है , रस की दृष्टि से देखिये सारा मीठा है। इसी प्रकार एक जीव को लीजिये उसे ज्ञान की दृष्टि से देखिये सारा जाननेवाला है, दर्शन की दृष्टि से देखिये सारा देखनेवाला है, सुख की दृष्टि से देखिये सारा भोगनेवाला है। क्योंकि सबका तादात्म्य अन्वय एक है इसलिये सब एक-दूसरे में अन्तलींन होकर अपने को एक
करते हैं इसलिये अन्वयी हैं। गुणवास्तव में भिन्न-भिन्न नहीं है। पर्यायों में यह बात नहीं है। कण्डल अपने को कड़ा रूप उपस्थित नहीं कर सकता। अतः उनमें वास्तव में भिन्नता है। अतः उन्हें व्यतिरेकी कहते हैं। पर्याय का लक्षण 'यह वह नहीं है ऐसा ही है। गुण का लक्षण 'यह वही है ' ऐसा ही है। बस यह व्यतिरेक और अन्वय का अन्तर जानने की चाबी है।
इस ग्रंथ में व्यतिरेक का स्पष्टीकरण १४७ से १५२ में है। तथा अन्वय का स्पष्टीकरण १४४,१५३ से १५६ तथा ४८९ से ४९२ तक है। इनको अभ्यास करने से व्यतिरेक और अन्वय का अन्तर अलक जायेगा।