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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भाव व्यतिरेक भनति गुणांश: कश्चित् स भवति जान्यो भवति स चाप्यन्यः ।
सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेकः ॥ १५ ॥ अर्थ- (एक द्रव्य के एक गुण का) कोई एक गुणांश है। वह (गुणांश) वही है दूसरा गुणांश नहीं है और वह दूसरा गुणांश भी वह पहला नहीं है। वह दूसरा गुणांश दूसरा ही है। यह भाव व्यतिरेक है।
भावार्थ-(१)यहाँ दो द्रव्यों के परस्पर गुणों के अभाव की बात नहीं है वह तो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अभाव में है। (२)तथा एक ही द्रव्य के अनन्त गुणों में परस्पर व्यतिरेक भी नहीं है। यह अर्थ नहीं है कि एक द्रव्य का जो ज्ञान गुण है वह जान ही है दर्शन नहीं है।गणों में व्यतिरेक होता ही नहीं. अन्वय ही होता है।(३)किन्त एक द्रव्य के किसी एक गुण के जो शक्ति के अनन्त अविभाग प्रतिछेद हैं उनको गुणांश कहते हैं। उसमें किसी एक गुण का कोई एक गुणांश लें। वह गुणांश वही है दूसरा गुणांश नहीं है। वह दूसरा गुणांश भी वह दूसरा ही है पहला नहीं है। इस प्रकार एक ही गुण के अनन्त अविभाग प्रतिछेदों का जो परस्पर व्यतिरेक है वह यहाँ इष्ट है। इसको भावव्यतिरेक कहते हैं।
यदि पुनरेवं न स्यात्स्यादपि चैतं पुनः पुन: सैषः।
एकादेशमा सर्व स्न्यासन बाधितत्वाधाक ॥ १५॥ अर्थ-यदि ऐसा न होवे ( अर्थात् एक ही द्रव्य में इस प्रकार का व्यतिरेक न होवे ) और पुनः-पुन: यह वही है। 'यह वही है 'ऐसा होवे तो सम्पूर्ण एक वस्तु एकांश देश मात्र रह जाये ( अर्थात् हर एक द्रव्य एक प्रदेश, एक प्रदेशी क्षेत्र, एक ही गुणवाला, और एक ही पर्याय वाला हो जायेगा) यह पहले (श्लोक ६८-६९-७० में ) बाधित किया जा चुका है।
अयमर्थः पर्यायाः प्रत्येक किल यथैकशः प्रोक्ताः ।
व्यतिरेकिणो हानेके न तथाऽनेकत्ततोऽपि सन्ति माणाः ॥१५॥ अर्थ-ऊपर कहे हुये कथन का खुलासा अर्थ इस प्रकार है कि पर्यायें प्रत्येक भिन्न-भिन्न जैसे एक-एक करके कही गई हैं। वे व्यतिरेकी हैं और अनेक है वैसे गुण अनेक होने पर भी वैसे व्यतिरेकी नहीं हैं।
भावार्थ-जैसे ऊपर एक-एका प्रदेश भित्र-भिन्न, एक-एक प्रदेश का क्षेत्र भिन्न-भिन्न, एक-एक समय की पर्याय भिन्न-भित्र, हर एक गुण का एक-एक गुणांश भित्र-भित्र ये सब इस प्रकार के भिन्न हैं कि इनमें "यह वह नहीं है" ऐसा व्यतिरेक लक्षण पाया जाता है और ये अनेक है वैसे गुण अनेक होने पर भी एक है। क्योंकि प्रत्येक गुण में "यह वही है"ऐसालक्षण घटता है। वे गुण अनेक होने पर भी एक कैसे हैं और उन सब में "यह वह नहीं है"ऐसा व्यतिरेकी लक्षण न घटकर "यह वही है" ऐसा अन्वय लक्षण किस प्रकार घटता है सो पहले १४४ में तथा आगे १५३ से १५६ तक फिर आगे ४८१ से ४९२ तक समझाया है।
किन्त्वेकश: स्वबुद्धौ ज्ञान जीवः स्वसर्वसारेण ।
अथ चैकराः स्वबुद्धौ दृग्वा जीवः स्वसर्वसारेण ॥ १५३ ॥ अर्थ-गुण अनेक होने पर भी व्यतिरेकी कैसे नहीं है किन्तु एक अन्वयी कैसे है इसका स्पष्टीकरण करते हैं कि एक बार अपनी बुद्धि में ज्ञान ही अपने सम्पूर्णसार रूप से जीव है। अथवा एक बार अपनी बुद्धि में दर्शन ही अपने सम्पूर्ण सार रूप से जीव है।
भावार्थ-जान की दृष्टि से जीव को देखो तो सारा जीव ज्ञानरूप है। फिर उसी जीव को दर्शन की दृष्टि से देखो तो सारा जीव दर्शनरूप है। फिर उसी को सुख की दृष्टि से देखो, सारा सुखरूप है। चाहे जिस गुण की दृष्टि से देखो, उसी रूप है। बस, इसीलिये गुण अनेक होकर भी एक अन्वयी है। पर्यायों में यह बात नहीं है। अपने अनुभव से मिलाकर देखिये।