SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक तस्माद्व्यतिरेकित्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्यये सूक्ष्मः । सोऽयं भवति न सोऽयं परमादेताततैव संसिद्विः ॥ १७३॥ अर्थ-इसलिये व्यतिरेकीपना उस (सत्) की स्थूल पर्याय में सूक्ष्म होता है। यह वही है यह वह नहीं है क्योंकि इससे ही उस व्यतिरेक की भले प्रकार सिद्धि होती है। (अर्थात् जो एक समय की पर्याय है वह वही है वह दूसरे समय की नहीं है बस इसी से व्यतिरेक भले प्रकार सिद्ध हो जाता है।) भावार्थ-एक समयवती पर्याय की द्वितीय समयवर्ती पर्याय में अभाव लाना, इसी का नाम व्यतिरेक है। यद्यपि स्थूल पर्यायों का समान रूप से परिणमन होता है तथापि एक समयवती परिणमन(आकार )दूसरे समयवती परिणमन से भिन्न है। दूसरे समयवर्ती परिणमन पहले समयवर्ती परिणमन से भिन्न हैं। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न समयों में होनेवाले भिन्न-भित्र आकारों में परस्पर अभाव घटित करना इसी का नाम व्यतिरेक है। जैसे क्रम से परिणमन करने वाले सत् की मनुष्य पर्याय हुई यह स्यूल है। उसमें जो समय-समय का ज्ञानादि का परिणमन है वह सूक्ष्म है। इस प्रकार स्थूल क्रमवर्ती पर्याय में सूक्ष्म व्यतिरेकी पर्याय है। उसमें जो एक समय की अवस्था है वह वही है दूसरे समय की नहीं है। इस परस्पर अभाव लक्षण से उसी व्यतिरेकीपने की सिद्धि है। विष्कंभ क्रम इति वा क्रम: प्रवाहस्य कारणं तस्य । न विवक्षितमिह किशित्तत्र तथात्वं किमन्यथात्वं ता ॥१४॥ अर्थ-जो विस्तारयुक्त हो वह क्रम कहलाता है। क्रम प्रवाह का कारण है। क्रम में यह नहीं विवक्षित है कि यह वह है अथवा अन्य है। भावार्थ-एक के पीछे दसरी, दसरी के पीछे तीसरी, तीसरी के पीछे चौथी, इसको प्रवाह, विस्तार या विष्कंभ कहते हैं । क्रम से परिणमन होना इसका कारण है। इसमें यह वही है' इस तथात्वकी कि'यह वह नहीं है इस अन्यथात्व की विवक्षा नहीं होती है। जैसे किसी सत् की क्रम से परिणमन करते-करते मनुष्य पर्याय हुई । अब समय-समय में उसका मनुष्य रूप ही परिणमन हो रहा है। यह मनुष्य पर्याय एक विष्कंभ है और समय-समय मनुष्य का मनुष्य रूप परिणमन प्रवाह क्रम आधीन है। पहले समय से दूसरे समय का मनुष्य वही है या दूसरा है क्रम में इस पर दृष्टि नहीं रहती है। क्रम में तो केवल समय-समय का परिणमन का प्रवाह विवक्षित है जैसे पानी का पुर प्रवाह रूप चला जाता है अथवा सत् का मनुष्य रूप से परिणमन होता चला जाता है। कमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च । स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति || १७५ ॥ अर्थ-क्रमवीपना व्यतिरेक के पहले होता है और नियम से व्यतिरेक सहित होता है। एक पर्याय के पीछे दूसरी, दूसरी के पीछे तीसरी, तीसरी के पीछे चौथी, इस प्रकार बराबर के प्रवाह को क्रम कहते हैं। जैसे 'यह वह है, वह नहीं है और यह वैसा है वैसा नहीं है" इस प्रकार परस्पर में आने वाले अभाव को व्यतिरेक कहते हैं। भावार्थ-एक के पीछे दूसरी,तीसरी, चौथी इस प्रकार बराबर होनेवाले प्रवाह को क्रम कहते हैं। क्रम में यह बात नहीं विवक्षित है कि "यह वह है यह वह नहीं है" यह विवक्षा व्यतिरेक में है। इसलिये क्रम व्यतिरेक के पहले होता है, क्रम व्यतिरेक का कारण है, व्यतिरेक उसका कार्य है। इसलिये क्रम और व्यतिरेक एक नहीं है किन्तु इन दोनों में कारण कार्य भाव भी है और लक्षण की भिन्नता भी है। क्रमवी परिणमन कभी सर्वथा सदृश नहीं होता है। उसमें विशदशतारहती ही है। इसलिये कहते हैं कि पहले क्रम के आधीन अवस्था उत्पन्न होती है। वह अवस्था पहली अवस्था से कुछ भिन्नता को लिये हुये अवश्य होती है। अतः पहले क्रम फिर च्यतिरेक तथा प्रत्येक क्रम व्यतिरेक सहित ही होता है। समय कम और व्यतिरेक का एक ही है। क्रम से होनेवाली प्रत्येक अवस्था में यह लक्षण पाया ही जाता है कि यह अवस्था यही है वह नहीं है। तथा यह अवस्था अपने स्वरूप रूप ही है उस स्वरूप रूप नहीं है। इसलिये उस कम में व्यतिरेकपना रहता ही है। * 'स्थूलपर्यय स्थूल:' ऐसा भी पाठ है पर हमको पूर्वापर अनुसंधान देखकर 'स्थूलपर्यये सूक्ष्मः' पाठ ठीक लगता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy