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________________ ५३६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी हिन्दी ग्रन्थ श्री ' भावदीपिका' में कहा है कषायों से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। क्योंकि ये योग और कषाय आत्मा को कर्मों से लिप्त करते हैं इसलिये इस योग कषाय की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। नाम कर्म के उदय रूप निमित्त कारण की उपस्थिति मैं द्रव्यमन, द्रव्यवचन, द्रव्यकाय उत्पन्न होते हैं। उनके आलम्बन से आत्मा के प्रदेश चंचल होते हैं उसे द्रव्ययोग कहा है और उसी पर्याय में भावयोग नामक कर्म के ग्रहण की शक्ति उत्पन्न होती है। उस भावयोग के द्वारा कर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता है। इन योगों की कषाय सहित प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। ऐसा लेश्या का स्वरूप है। और योग कषाय की प्रवृत्ति तीव्र, मध्य, मन्द, मन्दतर इन चार प्रकार होती है। उसके अनुसार आत्मा पाँच पाप रूप कार्य में प्रवर्त्तता है । १- हिंसा, २-झूठ, ३ - चोरी, ४- कुशील, ५ - परिग्रह [ विषय तृष्ण। ] । इन ५ पापरूप जो तीव्र, मध्य, मन्द, मन्दतर कार्य उसके अनुसार कृष्ण, नील, कापीत, पीत, पद्म, शुक्ल ऐसे दृष्टांत पूर्वक लेश्या के छः नाम हैं। (१) कृष्ण लेश्या - कषाय ४ प्रकार हैं। क्रोध मान माया लोभ । जब ये क्रोधादिक कषाय उत्कृष्ट पाँच पाए मन, वचन, काय द्वारा करता है। वहाँ उस भाव का नाम कृष्ण लेश्या है। क्योंकि ये कषाय भाव महापापरूप प्रवर्त्ते हैं- इसलिये इनको कृष्ण कहते हैं। (२) नील लेश्या - जहाँ क्रोधादिक कषाय मध्य अनुभाव को धारण कर प्रगट होते हैं वहाँ आत्मा मन वचन काय द्वारा कुछ कम पाँच महा पाप करता है। इसलिये उस भाव का नाम नील लेश्या है। क्योंकि ये कषाय भाव कृष्ण लेश्या से कुछ कम महापाप रूप हैं - इसलिये इनको नील कहते हैं । (३) कापोत लेश्या - जहाँ क्रोधादिक कषाय उससे भी नीचे के मध्य स्थानों में मध्य अनुभाग का धारण कर प्रगट होते हैं - तब आत्मा मन वचन काय द्वारा जघन्य पाँच पाप करता है। वहाँ आत्मा का कुछ ज्ञान चमकता है। जैसे कापोत अर्थात् कबूतर के पंख काले हैं तथा पीत में सफेदी का अंश चमकता है वैसे वह ज्ञान पाँच पाप रूप कालिमा सहित है- वैसे आत्मा का ज्ञान अंश चमकता है तथापि पाँच पापरूप कालिमा सहित है। कुछ कार्यकारी नहीं। इसलिये इसको कापोत लेश्या कहते हैं। (४) पीत लेश्या - जहाँ क्रोधादिक कषाय मन्द अनुभाग को धारण कर प्रगट होते हैं-तब आत्मा मन वचन काय द्वारा ५ पाप मन्द करता है। वहाँ कुछ धर्मानुरागयुक्त होता है-उस भाव का नाम पीत लेश्या है। (५) पद्म लेश्या - जहाँ क्रोधादिक कषाय अतिमन्द अनुभाग को धारण कर प्रगट होते हैं--तब आत्मा मन वचन काय द्वारा ५ पापों को अतिमन्द करता है। वहाँ कुछ अधिक हीन त्याग भाव प्रवर्त्तता है। वहाँ उस भाव का नाम पद्म लेश्या है। (६) शुक्ल लेश्या - जहाँ कोधादिक कषाय मन्दतर अनुभाग को धारण कर प्रगट होते हैं-तब आत्मा बुद्धिपूर्वक ५ पापों को नहीं करता है। सब लौकिक कार्यों में उदासीन भाव को धारता है। वहाँ आत्मा के भाव को शुक्ल लेश्या कहते हैं। क्रोधादिक कषाय चार चार प्रकार होकर प्रवर्त्ते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ । अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ । प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ । संञ्चलन क्रोध मान माया लोभ । ये १६ भेद कषाय भावों के हुए। जहाँ अनन्तानुबन्धी सहित अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन कषाय प्रवर्त्ती है वहाँ कृष्णादिक छहों लेश्या पाई जाती हैं। वह लेश्या अनन्तानुबन्धी की कही जाती हैं। वहाँ कृष्णादिक एक एक लेश्या क्रोधयुक्त कृष्ण लेश्या, मानयुक्त कृष्ण लेश्या, मायायुक्त कृष्ण लेश्या, लोभयुक्त कृष्ण लेश्या ऐसे एक एक लेश्या चार चार प्रकार है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी में लेश्या के २४ भेद हैं। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान कषायों में कृष्णादिक छहों लेश्या पाई जाती हैं। इसलिये अप्रत्याख्यान में भी २४ भेद हैं। प्रत्याख्यान वा संज्वलन कषायों में पीत पद्म शुक्ल ये तीन तीन लेश्या ही पाई जाती हैं। इसलिए इनमें क्रोध मान माया लोभ करि १२-१२ भेद हैं। ऐसे लेश्या के ७२ भेद हैं। इन ७२ भेदों का स्पष्ट स्वरूप जानने के लिये हिन्दी ग्रन्थ श्री " भावदीपिका " पन्ना ७५ से १९ तक पढ़िये । अत्यन्त सुन्दर मार्मिक विवेचन किया है। वैसा विवेचन अन्यत्र कहीं भी हमारे देखने में नहीं आया है। लेश्या भाव का कुछ विवेचन पं. मक्खनलाल जी ने भी इसी सूत्र के अर्थ में अपनी पञ्चाध्यायी टीका में लिखा है - वह भी पढ़ने योग्य है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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