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________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक ५३५ रूप है। कलङ्क है।बाधक है। इसकी सुन्दरता और स्वरूप को बिगाड़ने वाला है। हेय है।शोभास्पद नहीं है। अत: आत्मा में थोड़ा से थोड़ा जितना भी असिद्धत्व भाव है-वह सब ज्ञानियों की दृष्टि में महा अनर्थ स्वरूप, आत्मा का घातक और केवल आत्मा के लिये कलङ्क रूप है। इस कलङ्क अंश का नाम ही असिद्धत्व भाव है। मात्र शुद्ध जीवास्तिकाय के प्रदेशों [जैसा कि श्री पंचास्तिकाय सूत्र ३५ में पर्णित है ! कामासानाही सिनामात्र है जिनकी महिमा शब्द के अगोचर है। वही आत्मा का पूर्ण सुन्दर स्वरूप है जो कथंचित उपादेय है। सर्वथा उपादेय तो नित्य शुद्ध निजकारण परमात्मस्वरूप शुद्ध जीवास्तिकाय है। लेश्या औदयिक भाव ___ लेश्या के भेद, कारण और औदायिकपने की सिद्धि लेश्या षडेव विरव्याला भावा औटयिका: स्मृताः । यस्माद्योगकषायाभ्यां द्वाभ्यामेवोदयोद्धवाः ॥ १९०९ ॥ अन्वयः - लेश्याः षट् एव विख्याताः। औदयिकाः भावाः स्मृताः यस्मात् योगकषायाभ्यां द्वाभ्यां एव उदयोद्धवाः। अन्वयार्थ - लेश्या छः ही कही गई हैं। ये औदयिक भाव माने गये हैं क्योंकि योग और कषाय इन दोनों के ही उदय से उत्पन्न होती हैं । औदयिक भाव उन्हें ही कहते हैं जिनकी उत्पत्ति में कर्म उदय निमित्त मात्र कारण अवश्य पड़ता है । भावार्थ- कषायोदय जनित परिस्पन्दात्मक आत्मा के भावों का परम भाव लेश्या है। १-कृष्ण, २-नील, ३कपोत, ४-पीत, ५-पद्म,६-शुक्ल । ये ६ लेश्या भाव हैं। पहले तीन अशुभ भावों के तरतमरूप हैं। पिछली तीन शुभ भावों के तरतम रूप हैं। मोहनीय कर्म का उदय निमित्त कारण है। वास्तव में ये मोहभाव ही है। कषाय सहित योगप्रवृत्ति अर्थात् शुभाशुभ भाव सहित मन वचन काय की प्रवृत्ति की मुख्यता से निरूपण की जाती है। शुभाशुभ भाव रहित योगप्रवृत्ति को उपचार से लेश्या कहते हैं। वास्तव में वह लेश्या नहीं है। औदायिक भावों में द्रव्य लेश्या [ शरीर के रंगों] से कोई प्रयोजन नहीं है और भाव लेश्या मोह का ही अवान्तर भेद है। यह ध्यान रहे क्योंकि यहाँ जीव के भावों का प्रकरण है। __ जीव को यह विवेक रखना चाहिये कि आगामी आयु तथा गति स्वलेश्यानुसार ही बंधती है। अतः लेश्या भाव के विषय में हर समय जागृत रहना चाहिये। [ श्री पंचास्तिकाय सूत्र ११९] । आमवाले वक्ष को काटने वाले छ: मनुष्यों का दृष्टान्त सदा ध्यान में रखना चाहिए और उसके अनुसार अपने जीवन को चलाना चाहिए। जहाँ तक हो मन्द से मन्द लेश्या भाव से जीवन के कार्य निपटा लेने चाहिये। यहाँ से क्या ले जाना है व्यर्थ अधिक बन्ध करके आत्मा को भारी करने से कोई लाभ नहीं। वैसे तो सभी लेश्या भाव[ राग भाव होने से ] सर्वथा हेय हैं। ज्ञानी शक्ल लेश्या को भी उपादेय नहीं मानता पर यहाँ तो कहने का तात्पर्य इतना ही है कि जहाँ-तहाँ विवेक और सावधानता रखो जहाँ तक हो-हलका से हलका भाव रखना चाहिये क्योंकि न मालूम किस समय आयु बंध जाय और गति तो प्रत्येक समय बन्धती ही है पुनः भावार्थ- कषायों से अनरंजित योगप्रवृत्ति का नाम लेश्या है उसके दो भेद हैं। द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। शरीर के रंगों को द्रव्य लेश्या कहते हैं और कषायोदय जनित परि-स्पन्दात्मक आत्मा के भावों को भावलेश्या कहते हैं। यहाँ आत्मा के औदायिक भावों का प्रकरण है। अत: द्रव्यलेश्या से कछ प्रयोजन नहीं है। केवल भावलेण्या क्योंकि योग से प्रकृति प्रदेश बन्ध और कषाय से स्थिति अनुभाग बन्ध होता है। अतः सम्पूर्ण कर्मबन्ध के कारण ये लेश्या भाव ही हैं। कर्मों के ग्रहण करने की शक्ति का नाम योग है और उनमें स्थिति अनुभाग द्धालने की शक्ति का नाम कषाय है। योगों की तीव्रता से कर्मों का अधिक ग्रहण होता है और योगों की मन्दता से मन्द ग्रहण होता है किन्तु उनमें तीव्र कषाय से अधिक स्थिति अनुभाव पड़ता है और मद से मन्द योग + कषाय का नाम ही लेश्या है। .
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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