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________________ ५३२ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी शिष्य ने जो यह कहा था कि २५ की बजाय २६ भेद होने चाहिये उसका उत्तर यह दिया गया है कि कार्माणवर्गणाओं में जिसके भिन्न परमाणु होते हैं - वह पृथक भेद होता है। केवली भगवान् ने अपने ज्ञान में चारित्रमोहनीय के २५ प्रकार के परमाणु ही देखे हैं। अत: अधिक भेद तो है नहीं। हाँ उसमें कषाय और असंयम दो प्रकार के विभाव भावों में निमित्त होने की शक्तिद्वय है। शङ्का ननु चाप्रत्यारव्याजादिकर्मणामुदयात् कमात् । देशकृत्रजवतादीनां क्षलि: स्यात्सत्कर्थ स्मृतौ ॥ १९०४॥ अन्वयः - ननु अप्रत्याख्यानादिकर्मणां उदयात् क्रमात् देशकृत्स्नव्रतादीनां क्षतिः स्यात् तत् स्मृती कर्थ। अन्वयार्थ - शङ्का-अप्रत्याख्यानादि कर्मों के उदय से [-उदय में जुड़ने से ] क्रम से देशव्रत और महाव्रत आदिकों का घात होता है - वह आगम में कैसे कहा गया है? भावार्थ - जबकि अप्रत्याख्यान के उदय में जड़ने से देशव्रत की और प्रत्याख्यान के उदय में जाने से महानत की क्रम २ से क्षति होती है तब अप्रत्याख्यान के उदय समय में महाव्रत क्यों नहीं हो जाता क्योंकि उस समय महाव्रतों को रोकने वाला प्रत्याख्यान का तो उदय रहता ही नहीं और यदि अप्रत्याख्यान के उदय काल में प्रत्याख्यान का भी उदय माना जाये तो दोनों का क्रम-क्रम से उदय कैसे कहा है? समाधान सत्यं तत्राविनाभावो बन्धसत्वोदयं प्रति । द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् ॥ १९०५॥ अन्वयः - सत्यं । तत्र द्वयोः बन्धसत्त्वोदयं प्रति अविनाभावः अस्ति। अतः अन्यतरस्य विवक्षायां दूषणं न। अन्वयार्थ - ठीक है। वहाँ दोनों [ अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान ] में बन्ध, सत्त्व, उदय के प्रति अविनाभाव है। फिर भी किसी एक की विवक्षा में दोष नहीं है। भावार्थ - अप्रत्याख्यान के उदयकाल में प्रत्याख्यान का भी उदय रहता है इसलिये तो अप्रत्याख्यान के उदयकाल में महाव्रत नहीं होता और पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यान के उदय का अभाव होने पर भी प्रत्याख्यान का उदय रहता है इसलिये कथंचित् क्रम से उदय कहा जाता है। तथा अप्रत्याख्यान का उदय कहने से प्रत्याख्यान का भी उदय आ जाता है क्योंकि अप्रत्याख्यान के बंध उदय और सत्व के साथ अविनाभावी हैं,अर्थात् प्रत्याख्यान के बन्ध उदय सत्त्व के बिना अप्रत्याख्यान के बन्थ उदय सत्त्व नहीं हो सकते। इसलिये चौथे गुणस्थान तक दोनों का उदय रहते हुये भी अप्रत्याख्यान का उदय कहने में कोई दोष नहीं आता। अविनाभावी पदार्थों में एक काकथन करने से दूसरे का कथन स्वयं हो जाया करता है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब अन्यतर [किसी एक का ही प्रयोग करना इष्ट है तब अप्रत्याख्यान के स्थान में प्रत्याख्यान का ही प्रयोग क्यों नहीं किया जाता अर्थात् जैसे अप्रत्याख्यान के उदय से प्रत्याख्यान के उदय का बन्ध होता है उसी प्रकार प्रत्याख्यान का उदय कहने से अप्रत्याख्यान के उदय का भी बोध हो जाना चाहिए। परन्तु इसका उत्तर यह है कि अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान के उदय की परस्पर विषम व्याप्ति है क्योंकि चौथे गुणस्थान तक अप्रत्याख्यान का उदय तो बिना प्रत्याख्यान के उदय के नहीं रहता किन्तु पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यान का उदय अप्रत्याख्यान के उदय के बिना भी रह जाता है। इसलिये अप्रत्याख्यान की जगह प्रत्याख्यान का प्रयोग नहीं हो सकता। नोट - सूत्र १९०४-१९०५ का भावार्थ हमने पं. मक्खनलाल कृत टीका से उद्धृत किया है क्योंकि हमारी स्वयं की बुद्धि ने इसमें कुछ काम नहीं किया।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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