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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
वर्गणायें नहीं हैं। जब तक भिन्न जातिवाली कार्माण वर्गणायें न हों तब तक चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियों में आलाप की अपेक्षा से संख्या की वृद्धि नहीं मानी जा सकती है किन्तु अनन्तानुबन्धी की तरह चारित्रमोह में कवायत्व और असंयतत्त्व भिन्न जातिरूप से दो प्रकार की शक्ति ही है और वह जात्यन्तररूप होने से कषाय वा असंयम कही जाती है।
कषाय भाव और असंयम भाव का लक्षण तत्र यन्नाम कानुष्यं कषायाः स्युः स्वलक्षणम् ।
ताभावात्मको भावो जीवस्यासंयमो मतः ॥ १९०० ।। अन्वयः - तत्र यन्नाम कालुष्यं स्वलक्षणं[ते] कषायाः स्युः।यः जीवस्य व्रताभावात्मकः भाव: स: असंयमः मतः।
अन्वयार्थ-उन [कषाय और असंयम] में जो कलुषतारूप स्वलक्षण को धारण करने वाले हैं - वे कषाय भाव हैं और जो जीव का व्रत के अभावात्मक भाव है - वह असंयम माना गया है।
भावार्थ - जीव के कलुषित भावों का नाम ही कषाय है यही कषाय का निज लक्षण है। ये भाव क्रोध, मान, माया, लोभ, वेद आदि रूप से प्रगट मलिनतारूप सबको अनुभव में आते हैं।
जीव के व्रतरहित भावों का नाम असंयम है। असंयम परिणामों में यह जीव अष्ट मूलगुणों को या अणुव्रतों को या महाव्रतों को धारण नहीं कर सकता अथवा उनके अतिचारों को नहीं छोड़ सकता। इस प्रकार कषाय और असंयम दोनों भिन्न-भिन्न जाति के भाव हैं।
एतद्वैतस्य हेतुत्वं रथाच्छक्तिद्वैतैककर्मणः |
चारित्रमोहनीयस्य नेलररय मनागयि ॥ १९०१॥ अगः - एततहतमा हेपत्त शकितैककाण: चारित्रमोहनीयस्य स्यात् इतरस्य मनाक् अपि न।
अन्वयार्थ - इस द्वैत का कारण [कषाय भाव और असंयम भाव का कारण ] एक चारित्रमोह कर्म की दो शक्तियाँ हैं। इसमें दूसरे कर्म की शक्ति बिलकुल नहीं है।
दोनों साथ ही होते हैं योगपर्य द्वयोरेत कषायासंयतत्तयोः।
समं शक्तिद्वयस्थोच्यैः कर्मणोऽस्य तथोदयात् ॥ १९०२ ॥ अन्वयः - कषायासंयतत्त्वयोः द्वयोः एव योगपy अस्य कर्मण: उच्च शक्तिद्वयस्य समं तथोदयात्।
अन्वयार्थ - कषाय और असंयम दोनों भाव एक साथ रहते हैं क्योंकि इस कर्म की दो प्रकार की शक्ति का इकट्ठा इसी प्रकार का उदय है।
भावार्थ - कषाय भाव और असंयम भाव ये दोनों साथ साथ होते हैं क्योंकि समान दो शक्तियों को धारण करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म के उदय में जुड़ने से वैसा होता है।
कषाय और असंयम का भिन्न काल नहीं है। एक ही काल में उभयशक्तिविशिष्ट चारित्रमोह के उदय में जुड़ने से चौथे गुणस्थान तक कषाय और असंयम युगपत् पाये जाते हैं तथा आगे भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए।
अस्ति तत्रापि दृष्टान्तः कर्माजन्तानुबन्धि यत् ।
घातिशक्तिद्वयोपेत मोहनं दृकचरित्रयोः ।। १९०३ ।। अन्वय: - तत्र दृष्टान्तः अपि अस्ति यत् अनन्तानुबन्धि कर्म [ अस्ति तत् ] दक्चरियोः मोहन घातिशक्तिद्वयोपेत [अस्ति । अन्वयार्थ - इस विषय में [अर्थात् दो शक्तियों को धारण करनेवाला एक ही कर्म का उदय जीव के दो भावों
होता है - इस सम्बन्ध में1दशन्त भी है कि जो अनन्तानबन्धी कर्म है-वह दर्शन और चारित्र के मूर्छित होने में कारण रूप-दो प्रकार की घातकशक्ति से युक्त है। यह कषाय और असंयम की शक्तिवाले 'चारित्रमोह कर्म का दृष्टान्त है |
भावार्थ - जैसे स्वरूपाचरण और सम्यक्त्व को युगपत् यात होने में निमित्तरूप शक्ति अनन्तानुबन्धी कर्म में है - वैसे ही कषाय वा असंयम होने में निमित्तरूप शक्ति चारित्रमोह में है - ऐसा समझना चाहिये।