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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायरी
अन्वयार्थ - किन्तु उसके शक्ति भेद से भेद सिद्ध करना असिद्ध नहीं है जैसे विष वस्तुरूप से एक होकर भी विष और हालाहल शक्तिभेद से दो रूप है। उसी प्रकार चारित्रमोह। एक कर्म होकर भी उस ] में स्वभाव से दो प्रकार की शक्ति है। एक असंयतत्त्व की है और दूसरी कषायत्त्व की। ___भावार्थ - जगत् में बहुत ऐसे पदार्थ होते हैं जिनमें दो-दो शक्तियाँ होती हैं जैसे चावल का पाक ठण्डा भी होता है और खुश्क भी होता है। अरहर की दाल गरम भी होती है और कब्ज भी करती है उसी प्रकार किसी-किसी कर्म में तो एक ही प्रकार की शक्ति होती है और किसी-किसी में दो प्रकार की होती है जैसे मिथ्यात्व कर्म में तो केवल सम्यक्त्व के नाश में निमित्त होने की शक्ति है किन्तु अनन्तानुबन्धि में सम्यक्त्व और स्वरूपाचरण दोनों के घात में निमित्त होने की शक्ति है। उसी प्रकार ये चारित्रमोह की प्रकृतियाँ कषायों में भी निमित्त हैं और असंयम में भी निमित्त हैं जैसे अप्रत्याख्यान के उदय में जुड़ने से असंयम भी होता है और क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय भी होता है। ___ अब शिष्य कहता है कि चारित्रमोह की दो-दो शक्तियों मानने की बजाय यदि पच्चीस की बजाय २६ भेद मान लिये जायें तो क्या हानि है। ये २५ भेद तो कषायों की उत्पत्ति में निमित्त रहें और एक असंयम या संयमावरण नाम की प्रकृति और हो जो अधिक उत्पन्न करे। आगम में ऐसा कथन होना चाहिये ऐसा शिष्य अब कहता है :
शङ्का ननु चैवं सति ज्यायात्तत्संख्या चाभिवर्धताम् ।
यथा चारित्रमोहस्यभेदाः षडतिशतिः स्फटम ॥ १८९७॥ अन्वयः - ननु च एवं सति न्यायात् तत्संख्या अभिवर्धतां यथा चारित्रमोहस्य स्फुटं षड्विंशतिः भेदाः।
अन्वयार्थ - शङ्का - ऐसा मानने पर [ अर्थात् कषाय और असंयत दोनों चारित्रमोह के ही भेद हैं ] तो न्याय से उस चारित्रमोह की प्रकृतियों की संख्या भी अधिक माननी चाहिये और फिर चारित्रमोह के प्रगट [पच्चीस की बजाय] छब्बीस भेद मानने चाहिए।
भावार्थ - शङ्काकार का कहना है कि एक कर्म में जितनी प्रकार की शक्तियाँ होती हैं - उतने ही उसके अवान्तर भेद होते हैं । ऐसा न्याय संगत भी है। जब आप यह स्वीकार करते हैं कि चारित्रमोह में कषाय और असंयम दो प्रकार की शक्ति है - तो फिर उसकी प्रकृतियाँ १६ कषाय + ९ नोकषाय + १ असंयत इस प्रकार २६ होनी चाहिये जो बात न्यायसंगत है।
समाधान सूत्र १८९८ से १९०३ तक ६ सत्यं यज्जातिभिन्नास्ता या कार्मणवर्गणाः ।
आलापापेक्षया संख्या तत्रैवान्यत्र न क्वचित ॥ १८९८॥ अन्वय: - सत्य। यत्र ताः यम्जातिभिन्नाः कार्मणवर्गणाः तत्र एव आलापापेक्षया संख्या अन्यत्र क्ववित् न।
अन्वयार्थ - ठीक है। जहाँ पर जिसकी भिन्न जातिवाली वे कार्माणवर्गणायें होती हैं - वहाँ पर ही आलाय की अपेक्षा उतनी संख्या मानी जाती है और कहीं नहीं।
नाज तज्जातिभिग्जारता यत्र कार्मणवर्गणाः ।
किन्तु शक्तिविशेषोऽस्ति सोऽपि जात्यन्तरात्मकः ॥१८९९ ॥ अन्वयः - अत्र तजातिभिन्नाः ताः कार्मणवर्गणाः न किन्तु शक्तिविशेषः अस्ति स: अपि जात्यन्तरात्मकः।
अन्वयार्थ - पर यहाँ पर उस जाति की पृथक रूप से वे कार्माणवर्गणायें नहीं हैं किन्तु शक्तिविशेष है और वह भी जात्यन्तर रूप है।
शङ्का का उत्तर - पर यहाँ पर उस जाति की पृथक रूप से वे कार्माणवर्गणायें नहीं हैं किन्तु शक्तिविशेष है और वह भी जात्यन्तर रूप है।
शङ्का का उत्तर भावार्थ - चारित्रमोह की २६ संख्या माननी ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार से क्रोधादिक की भिन-भिन जातिवाली कामणि वर्गणायें हैं - उस प्रकार से संयम को घात करने के लिये चारित्रमोह में भिन्न जातिवाली कार्माण