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________________ द्वितीय खण्ड / सातवीं पुस्तक ५२९ अन्वयार्थ - इस प्रकार [ उक्त सम्पूर्ण कथनानुसार ] कषायों नोकषायों का और संयम असंयम का दोनों के कारण कार्य का सब वृत्तान्त है [ अर्थात् उपरोक्त कथन दोनों में कारण कार्य भाव को प्रगट करता है ] [ कषाय नोकषाय का असंयम के साथ कारण कार्य भाव है। यथायोग्य कषायें कारण हैं - तदनुसार असंयम कार्य है और उनके अभाव का संयम के साथ कारण कार्य भाव है। गुणस्थान परिपाटी अनुसार [ शुद्धि की वृद्धि अनुसार ] यथायोग्य कषायों का अभाव कारण है और तदनुसार संयम का होना कार्य है। यह कारण कार्य भाव स्पष्ट प्रगट करता है कि जहाँ जितनी कपायें हैं वहाँ उतना ही असंयम है । भावार्थ - कषाय के २ भेद हैं। कषाय और नोकषाय । कषाय के १६ अवान्तर भेद हैं। अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । नोकषाय के ९ भेद हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । इस प्रकार कषायों के कुल २५ भेद हैं। कारण कार्य का वृत्तान्त :- निमित्त को अर्थात् कर्म की अवस्था को कारण कहते हैं और जीव के नैमित्तिक विभाव भाव को कार्य कहते हैं वह इस प्रकार है :- - अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय कारण है और जीव का मिध्यात्व भाव [ स्वरूप की असावधानता ] कार्य है। अप्रत्याख्यान कषाय का उदय कारण है और देशसंयम भाव का न होना अर्थात् असंयम होना कार्य है।ख्याका कारण है और संयम का न होना अर्थात् एक देश असंयम होना [ संयमासंयम होना ] कार्य है। संज्वलन का उदय कारण है और यथाख्यात संयम का न होना कार्य है। [ वास्तव में तो जीव की योग्यता बतलाने के लिये यह सब निमित्त व्यवहार का कथन है ] - कषाय नोकषाय का वृत्तान्त :- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन, कषाय कहलाते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद, नोकषाय कहलाते हैं। कर्म प्रकृतियों के भी ये नाम हैं और जीव के विभाव भावों के भी ये नाम हैं। संयम असंयम का वृत्तान्त :अनन्तानुबन्ध से संयम असंयम का सम्बन्ध नहीं है क्योंकि यह सम्यक्त्व के घात में निमित्त है। अप्रत्याख्यान के उदय में जुड़ने से संयम का पूर्ण अभाव अर्थात् असंयम भाव की पूर्ण प्राप्ति है। प्रत्याख्यान के उदय में जुड़ने से सकल संयम का अभाव और एकदेश संयम और एकदेश असंयम होता है। संज्वलन के उदय में जुड़ने से सकल संयम तो होता है पर स्वस्वरूप की पूर्ण स्थिरता नहीं होती। संज्वलन के अभाव से [ पूर्ण शुद्धचारित्र के सद्भाव से ] पूर्ण यथाख्यात संयत होता है। असंयम बिलकुल नहीं होता। यह संयम असंयम का सब वृत्तान्त है। यह चारित्र गुण के विभाव परिणमन का और कर्मों की अवस्था का अर्थात् निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध का सब वृत्तान्त है। अनन्तानुबन्धी कोधादिक के उदय में यथासम्भव शेष क्रोधादिक का तथा नोकषाय का भी उदय रहता है। इसी तरह आगे के अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक के उदय में भी उत्तरवर्ती क्रोधादिक तथा यथा सम्भव नौकषायों का उदय समझना चाहिए। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि चौथे गुणस्थान तक पूर्ण रूप से असंयम भाव होता है और आगे के गुणस्थानों में जब तक पूर्ण रीति से कपायों का अभाव न हो जाय तब तक विवक्षित २ कषायों के उदय से विवक्षित २ चारित्र न होने रूप एक प्रकार का आंशिक असंयतत्त्व रहता है। इसलिये यद्यपि कषाय और असंयम इन दोनों में एक चारित्रमोह कर्म निमित्त है तथापि इन दोनों में सामान्यरूप से वा विशेष रूप से भी परस्पर में कारणकार्य भाव है। कषाय कारण है और असंयम उसका कार्य है। अथवा दूसरी युक्ति यह भी है कि चारित्रमोह कर्म में कषाय और असंयतत्त्वरूप दो प्रकार का शक्ति भेद है। सोई अब कहते हैं : : किन्तु तच्छवित्तभेदाद्वा नासिद्धं भेदसाधनम् । एकं स्याद्वाप्यनेकं च विषं हालाहलं यथा ॥ १८९५ ॥ अस्ति चारित्रमोहेऽपि शक्तिद्वैतं निसर्गतः । एकञ्चासंयतत्त्वं स्यात्कषायत्वमथापरम् ॥ १८९६ ॥ अन्वय :- किन्तु तच्छक्तिभेदात् भेदसाधनं असिद्धं न यथा विषं एकं अपि विषं हालाहलं अनेकं स्यात् । चारित्रमोहे अपि निसर्गतः शक्तिद्वैतं अस्ति । एकं असंयतत्त्वं अथ अपरं कषायत्वं स्यात् ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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