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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
शङ्का ननु ताऽसंयतत्त्वस्य कषायाणां परस्परम् ।
को भेदः स्याच्च चारित्रमोहस्यैकस्य पर्ययात ॥१८८९ ।। अन्वय: - ननु असंयतत्त्वस्य वा कषायाणां परस्परं कः भेदः स्यात् एकस्य चारित्रमोहस्य पर्ययात्।
अन्वयार्थ - शङ्का - असंयम भाव के और कषायों के परस्पर में क्या भेद [अन्तर] है क्योंकि दोनों एक चारित्रमोह की पर्याय हैं।
भावार्थ-शिष्य का कहना है कि असंयम भाव भी चारित्र गण की विभाव पर्याय है और कषाय भी चारित्र गुण की विभाव पर्याय है। असंयम में भी चारित्रमोह का उदय निमित्त है और कषायों में भी चारित्रमोह का उदय निमित्त है। फिर ये दोनों भाव एक ही वस्तु हुये। कुछ अन्तर हो तो बतलाइये? अब उत्तर में चारित्र गुण के कैसे कैसे विभाव परिणमन होते हैं और उनमें चारित्रमोहनीय की किस किस रूप से प्रकृतियाँ निमित्त हैं - यह सब वृत्तान्त खोलकर
समाधान सूत्र १८९० से १८९६ तक ७ सत्यं चारित्रमोहस्य कार्य स्यानुभयात्मकम् ।
असंयमः कषायाश्च पाकादेकस्य कर्मणः ॥ १८९० ।। अन्वयः - सत्यं । एकस्य चारित्रमोहस्य कर्मणः पाकात् उभयात्मकं कार्य स्यात्। असंयमः च कषायाः।
अन्वयार्थ - आपकी शङ्का ठीक है। एक चारित्रमोह कर्म के उदय [ में जुड़ने ] से दो प्रकार का कार्य होता है। असंयम और कषायें।
भावार्थ - यह तो ठीक है कि असंयम और कषाय आत्मा के दो भाव भिन्न भिन्न जाति के है किन्त निमित्त दोनों में एक चारित्रमोह का उदय ही है। किस प्रकार? इसको आगे अवान्तर भेदों के वृत्तान्त द्वारा खोलकर समझाते हैं :
पाकाच्चारित्रमोहस्य क्रोधाद्याः सन्ति षोडश ।
नव नोकषायनामानो न न्यूना नाधिकारततः ॥ १८९१॥ अन्वयः - चारित्रमोहस्य पाकात् क्रोधाद्याः षोडश च नव नोकषायनामानः। ततः न न्यूनाः न अधिकाः।
अन्वयार्थ - चारित्रमोह के उदय [ में जुड़ने ] से क्रोधादिक सोलह कषाय भाव और नौ नोकषाय नामक भाव होते हैं। इससे न कम होते हैं और न अधिक होते हैं।
पाकात्सम्यक्त्वहानिः स्यात् तत्रानन्तानुबन्धिनाम् ।। पाकाच्याप्रत्याख्यानस्य
संयतासंयतक्षतिः ॥१८९२॥ अन्वयः - तत्र अनन्तानुबन्धिनां पाकात् सम्यक्त्वहानिः च अप्रत्याख्यानस्य पाकात् संयतासंयतक्षतिः स्यात्।
अन्वयार्थ - उनमें अनन्तानुबन्धियों के उदय [ में जुड़ने से सम्यक्त्व की हानि होती है और अप्रत्याख्यान के उदय [ में जुड़ने ) से संयत्तासंयत की क्षति होती है।
प्रत्यारव्यानकषायाणामुटयात् संयमक्षतिः ।
संज्वलननोकषायैर्न यथारख्यातसंयमः ॥१८९३॥ अन्वयः - प्रत्याख्यानकषायाणां उदयात् संयमक्षति:च संज्वलननोकषायैः यथाख्यातसंयमः न स्यात्।
अन्वयार्थ - प्रत्याख्यान कषायों के उदय में जुड़ने से संयम की क्षति है और संचलन तथा नोकषायों द्वारा यथाख्यातसंयम नहीं होता है।
इत्येवं सर्ववृत्तान्तः कारणकार्ययोर्द्वयोः ।
कषायनोकषायाणं संयतस्येतरस्य च ॥ १८९४॥ अन्वय: - इति एवं कषायनोकषायाणां च संयतस्येतरस्य द्वयोः कारणकार्ययो: सर्ववृत्तान्तः।