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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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समाधान सूत्र १८८६ से १८८८ तक ३
इन्द्रिय संयम का स्वरूप |Importantl सत्यमक्षार्थसम्बन्धाज्ञानं नासंयमाय यत् ।
तत्र रागादिबुलिया संगमरसस्जिजम् 11८८६॥ अन्वयः - सत्यं। अक्षार्थसम्बन्धात् यत् ज्ञानं [तत्] असंयमाय न । तत्र या रागादिबुद्धिः तन्निरोधनं संयमः।
अन्वयार्थ - आप की शङ्का ठीक है। इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ को विषय करने से जो ज्ञान होता है - वह असंयम के लिये[ असंयम का कारण - असंयम जनक नहीं है किन्तु वहाँ [ इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होने पर उन पदार्थों में] जो रागादिभाव[ राग द्वेष-मोहरूप परिणाम हैं - वे परिणाम असंयम हैं और ] उसका रोकना [न होने देना ] संयम है [ अर्थात् इन्द्रिय और पदार्थों का सम्बन्ध होने पर उन राग-द्वेष-मोह परिणामों का न होने देना संयम है।]
भावार्थ - इस क्रियात्मक संयम और असंयम निरूपण का सम्बन्ध मुख्यतया पाँचवें छठे गुणस्थान से है। सो वहाँ जीव छद्मस्थ है और उसका ज्ञान परपदार्थों के जानने के लिये बुद्धिपूर्वक इन्द्रिय द्वारा ही प्रवृत्त होता है तो कहते है कि पर पदार्थों को जानने मात्र के लिये जो इन्द्रियों और पदार्थों का बिना विषय इच्छा रूप राग के सम्बन्ध होता है - वह असंयम नहीं कहलाता और उसका रुकना संयम भी नहीं कहलाता किन्तु जब जीव को विषय अभिलाषा होती है और भोग इच्छा रूप राग से जब इन्द्रियाँ परपदार्थों [ विषयों ] में प्रवृत्त होती है - तब वह भाव असंयम माना जाता है और वीतरागता-स्व-सन्मुखता पूर्वक भोग इच्छा निरोध सहित इन्द्रिय प्रवृत्ति का रुकना संयम जानना चाहिए।
पुनः भावार्थ - ठीक है। इन्द्रियज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है। इस कारण से इसे असंयम नहीं कहते कारण कि पदार्थों का जानना यह तो ज्ञान की पर्याय है पर ज्ञान का विकार नहीं है। असंयम तो विकार का नाम है - ज्ञान का नाम नहीं है। परन्तु इन्द्रियों के विषयों में रागादिक बुद्धि कर ज्ञान काराग-द्वेषवान होना ही असंयम है और उन विषयों में रागादि बुद्धि उत्पन्न न होने देना ही संयम है। यह सूत्र ग्रन्थकार ने मार्मिक लिखा है।
प्राणी संयम का स्वरूप जसरस्थावरजीवानां न बधायोद्यतं मनः ।
न वचो न वपुः क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ॥१८८७ ॥ अन्वयः - बसस्थावरजीवानां बधाय क्व अपि मनः उद्यतं न, वचः उद्यतं न, वपुः उद्यतं न इति प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।
अन्वयार्थ-त्रस स्थावर जीवों के बध के लिये कहीं भी मन उद्यत न होना, वचन उद्यत न होना, शरीर उद्यतन होना[अर्थात् बस स्थावर जीवों को मारने के लिये मन, वचन, काय की कभी प्रवृत्ति न होना] प्राण संरक्षण[प्राणी संयम] माना गया है।
असंयम भाव का लक्षण इत्युक्तलक्षणो यन्त्र संयमो नापि लेशतः ।
असंयतत्त्वं तन्जाम भावोऽस्त्यौदयिकः स च ॥१८८८॥ अन्वयः - इति उक्तलक्षण: संयमः यत्र लेशतः अपि न तत् असंयतत्त्वं नाम च स: औदयिकः भावः अस्ति।
अन्वयार्थ - इस प्रकार ऊपर कहा हुआ दोनों प्रकार का संयम जहाँ लेशमात्र भी नहीं है- वह असंयम नामक भाव है और वह भाव औदयिक भाव है।
भावार्थ - पहले ६ सूत्रों में इन्द्रिय संयम और प्राणसंयम रूप से दो प्रकार का संयम कहा गया है। वह संयमभाव क्षायोपशमिक, औपशामिक तथा क्षायिक भाव रूप है और उक्त संयम का न होना असंयमभाव है और यह भाव - उदय में जुड़ने से उत्पन्न होने के कारण औदयिक भाव कहा जाता है। १. निर्विकार स्वसंवेदन से विपरीत अव्रतपरिणामरूप विकार को अविरति अथवा असंयम कहते हैं। २. हिंसादि पापों में तथा पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्ति करने को भी अविरति [असंयम] कहते हैं।