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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अन्वयार्थ - आठ कर्म एक सुख गुण का विपक्षी है। इसलिये उसका विपक्षी भिन कोई एक कर्म नहीं है।
वेदनीयं हि कर्मेकमस्ति चेत्तद्विपक्षि च।
न यतोऽस्यारत्यघातित्व प्रसिद्ध परमागमात ॥ १८८० ॥ अन्वयः - चेत् तद्विपक्षि एकं वेदनीय कर्म स्यात्। एवं न यतः अस्य अघातित्वं परमागमात् प्रसिद्धं ।
अन्वयार्थ - यदि कहो कि उसका विपक्षी एक वेदनीय कर्म है तो ऐसा नहीं है क्योंकि इस कर्म के अघातिपना परमागम से प्रसिद्ध है।
समाधान का सार बहुत लोग सुख को एक पृथक् गुण नहीं मानते किन्तु उन्हें मालूम होना चाहिये कि ज्ञान दर्शन श्रद्धा चारित्र की तरह सुख एक स्वतंत्र गुण है। इसका स्वभाव विभावरूपदो प्रकारका परिणमन होता है। स्वभाव पर्याय को अतीन्द्रिय सुख कहते हैं और विभाव पर्याय को दुःख कहते हैं। उस विभाव रूप दुःख पर्याय के भी दो भेद हैं एक साता रूप दुःख एक असाता रूप दुःख। यह विभाव पर्याय १-२-३ गुणस्थान में पाई जाती है। स्वभाव पर्याय के भी दो भेद
वभाव पर्याय एक सर्वदेशस्वभाव पर्यायाचौथे से बारहवें तकएकदेश स्वभाव पर्याय है और तेरहवेंचौदहवें और सिद्ध में सर्वदेश स्वभाव पर्याय है। अब इसके लक्षण का विचार करते हैं। स्वभाव का घात दुःख का लक्षण है। स्वभाव की प्राप्ति सुख का लक्षण है। अब इसके निमित्त पर विचार करते हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि सुखावरण नाम का कोई कम तो है ही नहीं और विभाव इस गुण में होता ही है तो यह बात कैसे बने सो उसका उत्तर देते हैं कि आठों कर्मों का उदय इसमें निमित्त है। इसमें युक्ति यह है कि स्वभाव का घात दुःख का लक्षण है और स्वभाव के घात में आठों कर्मों का उदय निमित्त है हीं। अब प्रश्न यह है कि वे कर्म तो अपने-अपने सम्बन्धी गुणों के घात में निमित्त हैं। फिर सुख के घात में निमित्त वे कैसे हैं उसका उत्तर देते हैं कि प्रत्येक कर्म में दो शक्तियाँ हैं एक सामान्य शक्ति, एक विशेष शक्ति।सामान्य शक्ति तो जीव के दुःख में निमित्त होने की है और विशेष शक्ति अपनेअपने सम्बन्धी गुण के घात में निमित्त होने की है। अब शिष्य कहता है कि कहीं एक पदार्थ में दो शक्तियाँ भी होती हैं तो उत्तर देते हैं कि हाँ। जहर में दुःख देने की और मारने की दोनों शक्तियाँ हैं। चावल में ठण्डेपने की और खुश्कपने की दोनों शक्तियाँ हैं। इसी प्रकार कमों में सुख के तिरोभूत करने की और अपने विपक्षी गण के तिरोभूत करने की दोनों शक्तियाँ हैं। जब आठों कर्मों में दोनों शक्तियाँ हैं तो फिर एक भिन्न सुखावरण कर्म की आवश्यकता ही नहीं रहती। किन्हीं-किन्हीं का ऐसा विचार है कि सुख के विभाव परिणमन में आठ कर्म निमित्त नहीं हैं किन्तु वेदनीय कर्म निमित्त है तो ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि जीव के भाव में घातिया कर्म निमित्त होते हैं अघातिया नहीं। वेदनीयको आगम में अघातिकर्म कहा है। उसका कार्य -- सातावेदनीय का कार्य इष्टवस्तु की प्राप्ति कराना है और असाता वेदनीय का कार्य अनिष्टवस्तु की प्राप्ति कराना है। अब यह शङ्का हो सकती है कि आपने भी तो ऊपर आठों कर्मों को निमित्त कहा है। चार को नहीं फिर आपकी बात में पूर्व अपर विरोध हो जायेगा। इसका उत्तर यह है कि अधात्ति कर्मों को जब तक मोहनीय की सहचरता है तब तक जीव उनसे प्राप्त वस्तु में अपनेपने और इष्ट अनिष्टपने की कल्पना करके दुःखी होता है। अत: वे भी दुःख में निमित्त कारण बन जाते हैं। इस अपेक्षा आठों को दुःख में निमित्त कहा है। हाँ जहाँ घातिया नष्ट होकर केवली हो जाता है वहाँ अघातिया जली हुई रस्सी के समान रह जाते हैं। फिर उनमें दुःख में निमित्तपना नहीं रहता। हाँ जितने अंश में उनका उदय है - उतने अंश में आत्मा में विभाव परिणमन है। वह भी स्वभाव का घात है। इस अपेक्षा सम्पूर्ण अव्याबाध सुख वहाँ भी नहीं है जो केवल सिद्ध में है। इस प्रकार दुःख में आठों कर्मों का निमित्तपना है।
अज्ञान भाव का सार आत्मा में जितना ज्ञान, सज्ञान रूप से या कुज्ञान रूप से, विद्यमान है - वह सब तो क्षायोपशमिक ज्ञान भाव है। जीव का स्वभाव केवलज्ञान है। उतनी प्रगटता में जितना ज्ञान प्रगट है- उतना क्षायोपशमिक ज्ञान भाव है और जितना अप्रगट है - उसको अज्ञान भाव-मूच्छित ज्ञानया मृतक ज्ञान कहते हैं। यह अनुभव रूप नहीं है किन्तु गण में विद्यमान होने पर भी पर्याय में शून्य है। यह संक्लेश रूप तो नहीं है क्योंकि संक्लेश रूप तो राग द्वेष मोह भाव है और इसीलिये इससे बन्ध भी नहीं है किन्तु दुःखरूप अवश्य है क्योंकि इसके कारण से स्वाभाविक ज्ञान और सुख का अभाव हो रहा है जैसा कि पहले अबुद्धिपूर्वक दुःख में भली भाँति सिद्ध करके आये हैं।