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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
शङ्काकार का भाव (१) शङ्काकार का अभिप्राय है कि क्या ज्ञानादि गुणों के समान कोई सुख गुण भी है? और क्या दुःख भाव उसकी
वैभाविक अवस्था है? यदि है तो फिर अज्ञान भाव, मिथ्याभाव,कषायें-आदि भाव-इनको दुःख क्यों कहा गया है क्योंकि गुणों में गुण तो रहते नहीं हैं। जब दुःख सुख गुण की वैभाविक अवस्था है तो वह मुर्छित ज्ञान
म. भाव: भाविक भाडा बिल शामित्र में कैसे रह सकती है? (२) यदि ज्ञानादि गुणों के समान कोई सुख गुण नहीं है तो फिर मिथ्यात्वादि को दुःख किस दृष्टि से कहा जाता है? __भाव यह है कि शङ्काकार सुख दुःख का द्रव्य, गुण, पर्याय तथा निमित्त का पूर्ण वृत्तान्त जानना चाहता है और अज्ञानभाव दुःखरूप कैसे है-वह भी जानना चाहता है।
समाधान सन १८७५ से १८८० तक ६ सत्यं चारित्त सुरखं जन्तोगुणो ज्ञानगुणादिवत् ।
भवेत्तद्वैकृतं दुःख हेतोः कर्माष्टकोदयात् ॥ १८७५ ॥ अन्वयः - सत्यं। ज्ञानगुणादिवत् सुर्ख जन्तोः गुणः अस्ति। कर्माष्टकोदयात् हेतोः तद्वैकृतं दुःखं भवेत्।
अन्वयार्थ - ठीक है। ज्ञानगुण आदि की तरह सुख भी जीव का एक गुण है। आठ कर्मों के उदयरूप कारण से उस सुख गुण का विभाव परिणमन दुःख है। ___ भावार्थ - सुख गुण भी आत्मा का एक अनुजीवी गुण है। उस गुण को घात करने वाला कोई खास कर्म नहीं है जैसे कि ज्ञान दर्शन आदि के हैं किन्तु आठों ही कर्म उसके घात में निमित्न हैं : आठों कर्मों के उदय में जुड़ने से ही उस सख गुणकीदःखरूप वैभाविक अवस्था होती है। यहाँ पर यदि कोई शङ्का करें कि आठों ही कर्मों में भिन्नभिन्न प्रतिपक्षी गणों के घात करने की भिन्न-भिन शक्तियाँ है, फिर उन्हीं में सुख के घात करने की शक्ति कहाँ से आई? उसका उत्तर देते हैं :
अस्ति शक्तिश्च सर्वेषां कर्मणामुदयात्मिका ।
सामान्याख्या तिशेषारख्या द्वैविध्यात्तद्रसस्य च ।। १८७६॥ अन्वय: - सर्वेषां कर्मणां उदयात्मिका शक्तिः सामान्याख्या च विशेषाख्या द्वैविध्यात् अस्ति च तद्रसस्य।
अन्वयार्थ - सब कर्मों की उदयात्मक शक्ति सामान्यरूप और विशेषरूप दो प्रकार से है और उनका रस भी सामान्यरूप और विशेषरूप दो प्रकार से है।
सामान्याख्या यथा कृत्रनकर्मणामेकलक्षणात ।
जीवस्याकुलतायाः स्याडेतुः पाकागतो रसः ॥ १८७७ ॥ अन्वयः - सामान्याख्या यथा कृत्स्नकर्मणां एकलक्षणात् पाकागतः रस: जीवस्य आकुलतायाः हेतः स्यात्।
अन्वयार्थ - सामान्यरूप इस प्रकार है कि सब कर्मों का एक लक्षण है। वह इस प्रकार कि उन सबका उदयागत रस जीव की आकुलता का कारण होता है । और वही दुःख है।
न चैतदसिद्ध स्याद् दृष्टान्ताद्विषभक्षणात् ।
दुःरवस्य प्राणघातस्य कार्यद्वैतस्य दर्शनात् ॥ १८७८ ॥ अन्वयः - च एतत् अप्रसिद्धं न किन्तु विषभक्षणात् दृष्टान्तात् दुःखस्य प्राणघातस्य कार्यद्वैतस्य दर्शनात्।
अन्वयार्थ - [ कर्मों की सामान्य और विशेष ऐसी दो शक्तियां हैं ] यह बात अप्रसिद्ध नहीं है किन्तु विष भक्षण के दृष्टांत से दुःख का और प्राणघात का-दो प्रकार के कार्य का दर्शन होता है । इसी प्रकार ज्ञानावरणादि का उदय ज्ञानादि के घात में भी निमित्त है और सुख के घात में भी निमित्त है। एक पदार्थ में भी दो कार्यों की भली भाँति सिद्धि हो जाती है।
कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुरवरन्यैकगुणस्य च |
अस्ति किञ्चिज कर्मेकं तद्विपक्ष ततः पृथम् ॥ १८७९ ॥ अन्वयः - कर्माष्टकं सुखस्य गुणस्य विपक्षि स्यात्। ततः तद्विपक्षं पृथक् किञ्चिन् एकं कर्म न अस्ति।