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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थ - क्योंकि यह अज्ञान भाव संक्लेशरूप भी नहीं है जो दुःख का कारण होवे परन्तु जो क्लेश दुःख की मूर्ति समझा जाता है उसके सम्बन्ध से कवान् अनस है।
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भावार्थ - १. मिध्यात्व, २. क्रोध, ३. मान, ४. माया, ५. लोभ, ६. हास्य, ७. रति, ८. अरति ९, शोक, १०. भय, ११. जुगुप्सा और १२. वेद ये बारह भाव संक्लेश रूप कहे जाते हैं क्योंकि ये प्रगट क्लेश रूप हैं और मात्र यही बारह भाव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को बाँधते हैं। सो यह अज्ञानभाव इन संक्लेश भावों में नहीं है अतः बन्ध का कारण भी नहीं है और संक्लेश रूप भी नहीं है यह प्रथम पंक्ति का अर्थ है। अब दूसरी पंक्ति का अर्थ यह है कि आत्मा का स्वभाव अनन्तचतुष्टय रूप है। उसमें अनन्तसुख भी है और वह सुख अनन्तज्ञान का अविनाभावी है। अतः जितने अंश में ज्ञान का अभाव है उतने अंश में जीव के अनन्तचतुष्टय रूप स्वभाव का अभाव ही है और उतने अंश में सुख का अभाव भी है ही। इस अपेक्षा यह अज्ञानभाव क्लेश रूप अथवा दुःख रूप है। इस अपेक्षा दुःख की मूर्ति है। औदयिक भावों में बन्ध करने वाले तो केवल उपरोक्त १२ ही हैं किन्तु दुःख रूप २१ के २१ औदयिक भाव हैं। इतनी विशेषता है सो ध्यान रहे क्योंकि ये २१ भाव आत्मा के स्वभाव का घात करते हैं और स्वभाव का घात ही दुःख की वास्तविक परिभाषा है। चौथी पुस्तक में जो अबुद्धिपूर्वक दुःख का वर्णन किया है वह करीब करीब इस अज्ञान भाव का ही पर्यायवाची है।
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अज्ञानभाव दुःखरूप क्यों है? इसका उत्तर दुःखमूर्तिश्च भावोऽयमज्ञानात्मा निसर्गतः ।
वज्राघात इव ख्यातः कर्मणामुदयो यतः ॥ १८७१ ।।
अन्वयः - च अयं अज्ञानात्मा भावः निसर्गतः दुःखमूर्तिः यतः कर्मणां उदयः वज्राघातः इव ख्यातः ।
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अन्वयार्थ और यह अज्ञानस्वरूप भाव स्वभाव से ही दुःख की मूर्ति है क्योंकि कर्मों का उदय वज्राघात की तरह कहा गया है।
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भावार्थ - यह निमित्त का कथन है। श्री समयसारजी सूत्र ४५ तथा १६० पर से लिया गया है। विशेष जानकारी की इच्छा हो तो उन दोनों सूत्रों को टीका सहित पढ़िये । भाव इसका यह है कि आठों ही कर्मों का उदय अंश जीव के महान दुःख और स्वभाव की विपरीतता में ही निमित्त कारण है। अतः उपचार कथन से यूं समझिये कि वह महान् दुःख रूप है। क्योंकि जीव का स्वभाव अनन्त चतुष्टय सहित सिद्ध दशा है और उसका सब प्रकार से घात हो रहा है। अतः जीव जहाँ तक दोषयुक्त बनता है वहाँ तक कर्मों का 2उदय वज्रघात के समान कहा गया है। अबुद्धिपूर्वक दुःख इसी का फल है।
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शंका
ननु कश्चिद्गुणोऽप्यस्ति सुखं ज्ञानगुणादिवत् । दुःखं तद्वैकृतं पाकात्तद्विपक्षस्य कर्मणः ।। १८७२ ।। तत्कथं मूर्च्छितं ज्ञानं दुःखमेकान्ततो भतम् ।
सूत्रे द्रव्याश्रयाः प्रोक्ता यस्माद्वै निर्गुणा गुणाः ॥ १८७३ ॥ न ज्ञानादिगुणेषूच्चैरस्ति कश्चिद्गुणः सुखम् । मिथ्याभावाः कषायाश्च दुःखमित्यादयः कथम् ॥ १८७४ ॥
अन्वयः - ननु [ किं ] ज्ञानगुणादिवत् कश्चित् सुखं गुणः अपि अस्ति? [ किं ] तद्विपक्षस्य कर्मणः पाकात् तद्वैकृतं दुःखं । [ यदि एवं तदा ] तत् मूर्च्छितं ज्ञानं एकान्ततः दुःखं कथं मत यस्मात् सूत्रे गुणाः द्रव्याश्रयाः प्रोक्ताः च निर्गुणाः प्रोक्ताः । [ यदि ] ज्ञानादिगुणेषु कश्चित् सुखं गुणः उच्चैः न अस्ति तदा मिथ्याभावाः च कषायाः इत्यादयः कथं दुःखं?
अन्वयार्थ - क्या ज्ञान गुण आदि की तरह कोई सुख गुण भी है? क्या अपने विपक्षी कर्म के उदय से वह सुख विकारी होकर दुःख रूप है? यदि ऐसा है तो वह मूर्च्छित ज्ञान [ अज्ञान औदयिक भाव ] सर्वथा दुःखरूप कैसे माना गया है क्योंकि सूत्र में गुण द्रव्याश्रित कहे गये हैं किन्तु स्वयं निर्गुण कहे गये हैं अर्थात् गुण के आश्रय गुण नहीं कहे गये हैं? यदि ज्ञानादि गुणों में कोई सुख गुण वास्तव में नहीं है तो मिध्याभाव और कषाय- इत्यादिक भाव दुःखरूप कैसे हैं?