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________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक ५२१ उपरोक्त ६ पदार्थों में किस प्रकार घटाते हैं - इसके लिये हिन्दी ग्रन्थ' श्री भावदीपिका पना ३५ से ४८ तक अभ्यास करें। बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है। अज्ञान औदयिक भाव (सूत्र १८६७ से १८८० तक १४) अज्ञान भाव का कारण तथा औदयिकपने की सिद्धि अज्ञालं जीवभावो यः स स्यादौदयिकः स्फटम । लब्धजन्मोदयाद्यस्माज्ज्ञानावरणकर्मणः ॥ १८६७॥ अन्वयः - यः 'अज्ञानं' इति जीवभावः सः स्फुटं औदयिकः स्यात् यस्मात् ज्ञानावरणकर्मण: उदयात् लब्धजन्मा [अस्ति । अन्वयार्थ - जो 'अज्ञान' जीवभाव है वह प्रगट औदयिक है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के उदय से यह जन्म प्राप्त [उत्पन्न है। भावार्थ- प्रत्येक जीव का स्वभाव केवलज्ञान जितना है। उस केवलज्ञान के बराबर ज्ञान में से जितना ज्ञान पर्याय में एक समय लब्धिरूप[उधारूप - खुला हुआ] प्राप्त है - वह तो क्षायोपशमिक ज्ञानभाव है चाहे वह सम्यग्दष्टि का हो - चाहे वह मिथ्यादृष्टि का हो और जितना ज्ञान तिरोभूत है - वह औदयिक अज्ञानभाव है चाहे वह सम्यग्दष्टि का हो या मिथ्यावृष्टि का हो। यह औदायिक अज्ञानभाव पहले से बारहवें गुणस्थान तक है। तेरहवें में इसका अभाव है। मिथ्यात्व अवस्था में जो कुज्ञान को अज्ञान कहा जाता है-उस अज्ञान शब्द का अर्थ तोक्षायोपशामिक मिथ्याज्ञान है वह औदयिक भाव नहीं है किन्तु क्षायोपशमिक भाव है। यहाँ तो अज्ञान का अर्थ अ-ज्ञान अर्थात् पर्याय में अभावात्मक ज्ञान से आशय है। अज्ञानभाव का लक्षण अरत्यात्मनो गुणः ज्ञानं स्वापूर्वार्थातभासकम् । मूर्छितं मृतकं वा स्याद्वपुः रतावरणोदयात् ॥ १८६८॥ अन्वयः - आत्मनः स्वापूर्वार्थावभासकं ज्ञानं गुणः अस्ति। सः स्वावरणोदयात् मूर्छित वा मृतकं वपुः स्यात्। अन्वयार्थ - आत्मा का एक ज्ञान गुण है जो अपने स्वरूप का और अपूर्वार्थ [ अनिश्चित पदार्थों ] का प्रकाशक है।वह ज्ञान गुण अपने आवरण[ ज्ञानावरण ] के उदय अंश से मूर्छित या मृतक शरीरवत् हो जाता है।[यह औदयिक अज़ान भाव है अर्थात् जितना ज्ञान का पर्याय में अभाव है - उघाड़ नहीं है - वह अज्ञान भाव है | अज्ञान भाव बन्ध का कारण नहीं है अर्थादौदयिकत्वेऽपि भावरस्यास्याप्यवश्यतः । ज्ञानावृत्याटिबन्धेऽस्मिन् कार्ये वै स्थादहेतुता ॥ १८६९ ॥ अन्वयः - अर्थात् अस्य भावस्य अवश्यतः औदयिकत्वे अपि अस्मिन् जानावृत्यादिबन्धे कार्ये वै अहेतुता स्यात्। अन्वयार्थ - वास्तव में इस भाव के अवश्य औदयिकपना होने पर भी इसमें ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध रूप कार्य में निश्चय से अहेतुता [अकारणता ] है। भावार्थ - पाँच भावों में से केवल औदयिक भाव को बन्ध का कारण कहा था सो यहाँ विशेष नियम बताते हैं कि यह अज्ञान भाव औदयिक तो जरूर है पर कर्मबन्ध करने वाला नहीं है। क्यों नहीं है - इसका कारण बतलाते हैं :अज्ञान भाव क्योंकि संक्लेशरूप नहीं है इसलिये बन्ध का कारण नहीं है तथापि दुःखरूप जरूर है। नापि संक्लेशरूपोऽयं यः स्याद बन्धस्य कारणम् । यः क्लेशो दुःरचमूर्तिः स्यासटोगादरित क्लेशवान् ॥ १८७० ॥ अन्वयः - अपि अयं संक्लेशरूप: न यः बन्धस्य कारणं स्यात्। यः क्लेशः दुःखमूर्तिः स्यात् तद्योगात् क्लेशवान् अस्ति ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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