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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
(१२) लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता मिथ्यादर्शन के चिह्न हैं [ सूत्र १३६१ से १३६९]। (१३) नौ तत्त्वों में अश्रद्धा या विपरीत श्रद्धा का होना मिथ्यादर्शन है [ सूत्र १७९२ तथा १८०९]। (१४) अन्य मतियों के बताये हुये पदार्थों में श्रद्धा का होना [ सूत्र १७९७]। (१५) आत्म स्वरूप की अनुपलब्धि होना [ सूत्र १७९९]। (१६) सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों का विश्वास न होना [ सूत्र १८१०]। (१७) मोक्ष के अस्तित्व तथा उसमें पाये जाने वाले अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रति रुचि का न होना।
[सूत्र १८१२]। (१८) छः द्रव्यों को स्वतःसिद्ध अनादि अनन्त स्वतंत्र परिणमन सहित न मानना [ सूत्र १८१३]। (१९) तत्व की नित्य-अनित्य, एम अनेक, अस्ति नास्ति, तत्-अतत् स्वरूप अर्थात् वस्तु अनेकान्तात्मक है ऐसा
न मानना किन्तु एकान्तरूप मानना [सूत्र १८१४]। (२०) नोकर्म [मन, वचन, काय ] और भावकर्म [क्रोधादि भावों ] में, तथा धनधान्यादि जो अनात्मीय वस्तुएं हैं
उनको आत्मीय मानना [सूत्र १८१५]) (२१) झूठे देव, गुरु, धर्म को सच्चेवत् समझना या सच्चे देव, गुरु, धर्म की श्रद्धा न होना [ सूत्र १८१६]। (२२) धन, धान्य, सुता आदि की प्राप्ति के लिये देवी आदि को पूजना या अनेक कुकर्म करना [ सूत्र १८१७]। _स्व पर का भेदविज्ञान न होना, इन्द्रिय सुख में गाढ़रुचि होना, इत्यादिक मोटे-मोटे चिन्ह आगम में बहुत बतलाये हैं। भाव यही है कि अनर्थकारक संसार का मूल उत्पादक यह मिथ्यात्व भाव ही है। अत: इसको जड़मूल से खोने का जीव को अवश्य उपाय करना चाहिये।
मिध्यादर्शन भाव का स्वरूप निज चैतन्यस्वरूप में सर्वथा असावधान होना अर्थात् स्व से च्युत होना अर्थात् दर्शनमोह कर्म के उदय में युक्त होने से जीव के मिथ्यात्वभाव होता है। इसलिये इसको औदयिक मिथ्यात्वभाव कहते हैं। विपरीताभिनिवेश वह मिथ्यात्वभाव कहा जाता है। विपरीताभिनिवेश कहिये अन्यथा अभिप्राय-अतत्वश्रद्धानरूपभाव। तस्य भावस्तत्वं' जिसका जो भाव - वह ही उसका तत्त्व और जिसका जो भाव नहीं - अन्यथा भाव मानना- वह अतत्वश्रद्धान कहा जाता है। उसी तस्वसे जीवादिक पदार्थ अपने-अपने जिस भाव रूप तिष्ठते हैं तिस ही भावकहिये स्वरूप सहित जानना सो तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन भाव है और जिस भावरूप नहीं है - उस भाव रूप मानना सो अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव होता है। वह मिथ्यात्वभाव २ प्रकार है। (१) अगृहीत ( २ ) गृहीत।
अगृहीत मिथ्यात्व का स्वरूप उसमें परद्रव्य, परगुण, परपर्याय में अहंकार-ममकार बुद्धि वा दृष्टिगोचर पुद्गल पर्यायों में द्रव्यबुद्धि, अदृष्टिगोचर द्रव्य गुण पर्यायों में अभाव बुद्धि-वह अगृहीत मिथ्यात्वभाव हैं [ अब क्रमशः इनका स्वरूप दिखलाते हैं । (१) परद्रव्य में अहंबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - परद्रव्य जो शरीर पुद्गलपिंड उसमें जो अहंबुद्धि''यह मैं हूँ"यह परद्रव्य
में अहंबुद्धि मिथ्यात्वभाव है। (२) परगुण में अहंबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - जैसे पुद्गल के स्पर्शादि भाव [ गुण ] उनमें अहंबुद्धि जैसे मैं ऐसा हूँ
"गरम मैं, ठण्डा मैं, कोमल मैं, कर्कश मैं, सच्चिकण मैं सूक्ष्म मैं, हलका मैं, भारी मैं, गोरा मैं,काला मैं, लाल मैं, हरा मैं, पीला मैं, सुगन्धी मैं, दुर्गधी मैं, मीठा मैं,खट्टा मैं, कटुक मैं, कषैला मैं, चिरपरा मैं" इत्यादि
यह परगुण में अहंबुद्धि मिथ्यात्वभाव है। (३) परपर्यायों में अहंबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - मैं देव, मैं नारकी, मैं मनुष्य, मैं तिर्यञ्च और इनके अनेक विशेष
[अवान्तर भेद-प्रभेद ] तिनमें अहंबुद्धि - वह परपर्याय में अहंबुद्धि मिथ्यात्वभाव है। (४) परद्रव्य में ममकारबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - यह मेरा धन, यह मेरा मकान, ये मेरे आभूषण, ये मेरे वस्त्र, ये
मेरे धान्यादिक पदार्थ इत्यादि वस्तुओं में ममकार वह परद्रव्यों में ममत्वबुद्धिरू