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द्वितीय खण्ड/सातवी पुस्तक
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मिथ्यादर्शन भाव का स्वरूप १८६५-१८६६ अस्ति जीवस्य सम्यवत्वं गुणश्चैको निसर्गजः ।
मिथ्याकर्मोदात्सोऽपि वैकृतो विकृताकृतिः ॥ १८६५ ।। अन्वयः - जीवस्य निसर्गजः एकः सम्यक्त्वं गुणः अस्ति। सः अपि मिथ्याकर्मोदयात् विकृत: विकताकृतिः [मिथ्यात्वरूप:] अस्ति।
अन्वयार्थ - जीव का स्वतः सिद्ध एक सम्यक्त्व गुण है। वह मिथ्यात्वकर्म के उदय से [ उदय में जुड़ने से ] बिकारी होकर विकृत आकृति को धारण कर लेता है [ अर्थात् सम्यक्त्व गुण का विकारी परिणमन ही यह मिथ्यादर्शन रूप पर्याय है और सम्यग्दर्शन से विपरीत स्वरूप को धारण करनेवाली है। सम्यग्दर्शन आत्मा में एक निर्मलता है और मिथ्यादर्शन उसकी बिगड़ी हुई दशा रूप मलिनता है ]।
उक्तमरित स्वरूपं प्राइमिथ्याभावस्य जन्मिनां ।
तस्मान्नोक्तं मनागत्र पुनरुवसभयात्किल ।। १८६६ ॥
जन्मिनां मिथ्याभावस्य स्वरूप प्राकउक्त अस्ति तस्मात् पनरुवतभयात् मनाक अपि अत्र किलन उक्तं। अन्वयार्थ - जीवों के मिथ्याभाव का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। इसलिये पुनरुक्त [ दोष ] के भय से थोड़ा
भी यहां नहीं कहा गया है।
भावार्थ - मिथ्यात्व भाव को मिथ्यादर्शन भी कहते हैं जो दर्शनमोह के उदय के आश्रय से होने वाली निर्विकल्प कलुषता आत्मा में है। इसको सम्यक्त्व गुण का विभाव परिणमन भी कहते हैं। इस भाव के अस्तित्व को पहचानने के लिये आचार्यों ने निम्नलिखित चिह्न बतलाये हैं जिनका निरूपण इस ग्रन्थ में निम्न सूत्रों में इस प्रकार आया है - (१) अपने को कर्मचेतना [राग द्वष मोह रूप और कर्मफलचंतना [ सुख दुःख रूप] तन्मयपने से अनुभव करना
अर्थात् मेरा आत्म द्रव्य बस इतना ही है ऐसा अनुभव मिथ्यादर्शन है। सूत्र ९७४ से ९८२]। (२) अपने को नौ तत्त्वरूप [ पर्याय के भेदरूप] अनुभव करना सामान्यरूप [ अन्त:तत्वरूप] अनुभव न करना
मिथ्यादर्शन है [ सूत्र ९८३ से १९६ । आत्मा का, कर्म का, कर्ताभोक्तापने का, पुण्यपाप का, उसके कारण और फल का, सामान्यविशेष स्वरूप का, राग से भिन्न अपने स्वरूप का आस्तिक्य न होना मिथ्यादर्शन है [ सूत्र १२३३]। सातभय युक्त रहना मिथ्यादर्शन है [ सूत्र १२६४]। इष्ट का नाश न हो जाय, अनिष्ट की प्राप्ति न हो जाय, यह धन नाश होकर दरिद्रता न हो जाय यह 'इहलोक भय' है। विश्व से भिन्न होकर भी अपने को विश्वरूप समझना या विश्व को अपने रूप समझना इस भय
का कारण है। यह मिथ्यादर्शन से होता है। [सूत्र १२७४ से १२७८ तक]। (६) मेरा जन्म दुर्गति में न हो जाय ऐसा परलोकभय मिथ्यादर्शन है [ सूत्र १२८४ से १२९१ तक ।
रोग से डरते रहना या रोग आने पर घबराना या उससे अपनी हानि मानना ऐसा वेदना भय मिथ्यादर्शन से होता
है [ सूत्र १२९२ से १२९४]। (८) पर्याय के नाश से अपना नाश मानना यह अत्राण भय मिथ्यादर्शन से होता है [ सूत्र १२९९ से १३०१]। (९) पर्याय के जन्म से अपना जन्म और पर्याय के नाश से अपना नाश मानना यह अगुप्तिभय मिथ्यादर्शन से होता
है [ सूत्र १३०४ से १३०५ ] (१०) दस प्राणों के नाश से डरना या उनके नाश से अपना नाश मानना यह मरणभय मिथ्यादर्शन से होता है [ सूत्र
१३०७ से १३०८]। (११) बिजली आदि गिरने से या और किसी कारण से मेरी बुरी अवस्था न हो जाय ऐसा अकस्मात् भय मिध्यादर्शन
से होता है [ सूत्र १३११ से १३१३]।