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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
(५) परगुण में ममकारबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - शरीर के बल वीर्य को ऐसा मानना कि यह मेरा बल ऐसा है कि
अनेक पराक्रम करूँ। यह मेरा शब्द, यह मेरी चाल, यह अनेक कार्यों में मेरी प्रवृत्ति इत्यादि - परगुणों में
ममबुद्धिरूप अगृहीतमिथ्यात्वभाव है। (६) परपर्याय में ममकारबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव – यह मेरे पुत्र, यह मेरी स्त्री, यह मेरी माता, ये मेरे पिता, ये मेरे
भाता इत्यादि वा ये मेरे सामन्त, ये मेरे सैन्या, ये मेरी रैय्यत, ये मेरे हाथी, ये मेरे घोडे, रथ, पालकी. गोधन
इत्यादिकों में ममकारबद्धि वह परपर्यायों में ममकारबुद्धिरूप अग्रहीत मिथ्यात्वभाव है। (७) दृष्टिगोचर पुद्गलपर्यायों में द्रव्यबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - दृष्टि में जितनी घटपटादि पुद्गल की पर्यायें आती हैं
-उनको जुदा जुदा द्रव्य मानता है। ये घट है। ये स्वर्ण है। यह पाषाण है। ये पर्वत है। ये वक्ष है।ये मनुष्य है। ये हाथी है। ये घोड़ा है। यह काक है। ये चिड़िया है। यह स्याल है। यह सिंह है। यह सूर्य है। यह चन्द्रमा है। इत्यादिक पर्यायों में द्रव्यबुद्धि को धारता है। उनका सत्व मानता है। अर्थात् वर्तमान क्षणिक पर्याय को ही द्रव्य
मानता है - त्रैकालिक सत्ता सहित गुण पर्यायरूप द्रव्य नहीं मानता। (८) अदृष्टिगोचर द्रव्यगुणपर्यायों में अभावबुद्धिरूप मिथ्यात्वभाव - जो दृष्टिगोचर नहीं ऐसे जो दूरक्षेत्रवर्ती वा होकर
नाश हो गई वा अनागत काल में होंगी वा इन्द्रियों से अगोचर सूक्ष्मपर्याय इत्यादिक जो अपनी और पर कीउनको अभावरूप मानता है। इनका सत्व हो चुका वा होयेगा वा वर्तमान में है- ऐसा नहीं मानता है। इत्यादि भाव तो अगृहीतमिथ्यात्व रूप जानना। ये अगृहीत मिथ्यात्व तो जीव के अनादिभाव है और परभाव योग्य
पर्याय रक्षाकाल सर्व सजी के प्रवर्ततकोई कर कदाचित उपदेशित नहीं - इस वास्ते नैसर्गिक कहा जाता है।
गृहीतमिथ्यात्व का स्वरूप मिथ्यात्वस्वरूप को धारण किया ऐसा जो यह घोर संसारी जीव है उसको सर्वथा अहित का कारण यह है। उस संसार में जीव का हित जो मोक्ष [ मोक्ष कहिये सर्व कर्मों का अभाव कहिये संसार से छूट जाना ] उसके कारणभूत [निमित्तमात्र कारण ये पदार्थ हैं (१) देव(२)गुरु (३) धर्म (४) आप्त (५)आगम(६) पदार्थ। ये मोक्षमार्ग के कारण [व्यवहार कारण] ६ तत्व हैं। अब इनका स्वरूप कथन करते हैं। (१) देव तत्व – 'निर्दोषो देवः' सम्पूर्ण समस्त दोषों से रहित जो जीव होता है - वह देव कहा जाता है। दोष अज्ञान
और कषाय से होते हैं। उसमें कर्म के आवरण सहित जो ज्ञान - वह अज्ञान कहा जाता है और राग द्वेष भाव वह कषाय कहा जाता है। क्योंकि अज्ञानी कषायी जीव स्व पर के हित को नहीं कर सकता है तो वह पूज्य पद में कैसे स्थापित हो सके क्योंकि जगजीव पूजते हैं सो अपने हित के वास्ते पूजते हैं। जिस जीव द्वारा हित
हो सके - उसको क्यों पूजें। क्योंकि जो हित के कारण नहीं - वे पूज्य भी नहीं - पूज्य नहीं वे देव भी नहीं। इसलिये जो समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण के नाश होते प्रगट हुआ है अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन जिनको
और समस्त दर्शनमोह और चारित्रमोह के अभाव होते मिट गया है मिथ्यात्व और कषाय भाव - उस कर उत्पन्न हुआ है अपना सहज स्वभाव अनन्त सुख जिनके, और अन्तराय कर्म के अभाव होते प्रगट हुआ है अनन्तवीर्य जिनके ऐसे अनन्तचतुष्टय के धारक परमदेव हैं। क्योंकि अपने हित की तो हो गई है सिद्धिजिनके और परजीवों के हित करने में परम शक्ति को धारते हैं - इसलिये पूज्यपाद में तिष्ठते हैं - इसलिये वे महन्त देव हैं। जो सर्व कर्म का अभाव करके परद्रव्य से सर्वथा छुट लोक के शिखर में तिष्ठे, सर्व प्रकार हो गई है स्वरूप की सिद्धिजिनके, सम्यक्त्वादि अष्टगुण युक्त ऐसे परम देव सिद्ध भगवान वे देव हैं , पूज्य हैं, जिनके स्वरूप चिन्तवन
मात्र से ही सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा परमदेव का स्वरूप है। (२) गुरु तत्त्व-गुरु नाम बड़े का है। जो अहित से बचाकर जीवों को हित में प्रवर्तावने के कारण तातें बडे कहिये
सो ही गुरु । जो २८ मूल गुण संयुक्त, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी, नग्नमुद्रा के धारक, शुद्ध रलत्रय रूप है प्रवृत्ति जिनकी परम दशलाक्षणिक धर्मरूप है मूर्ति जिनकी, बाह्याभ्यन्तर द्वादश प्रकार तप में आरूढ़ परम दिगम्बर गुरु जानने। धर्मगुरु की अष्टद्रव्य कर पूजा करनी। हाथ जोड़ अष्टांग या पञ्चांग नमस्कार करना। महाभक्तिपूर्वक ४ प्रकार दान देना। सर्वोपरि सत्कार करना विनय करना।