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________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक इसके साथ ही साथ एक सिद्धान्त और निर्णय करते हैं कि जो जीव का स्वभाव है - वही सुखरूप है और जितना विकृतपना है - वह सब दुःखरूप है। इसलिये विकृत अवस्था में जीव वास्तव में सुखी नहीं है किन्तु वास्तव में अत्यन्त दुःखी ही है। इसलिये विकृतपने का और दुःख का अविनाभाव है या विकृतपना स्वयं दुःखरूप ही है तथा स्वभाव का और सुख का अविनाभाव है या स्वभावपना स्वयं सुखरूपही है - ऐसा यहाँ आशय है। यहाँ प्रत्येक गुण की विकृत अवस्था को दुःखरूप कहा गया है और स्वाभाविक अवस्था को सुखरूप कहा गया है। व्यष्टि का ज्ञान कराने के लिये तो ऐसा जरूर कहा जाता है कि "विभाव स्वभाव के ऊपर तरता है - द्रव्य में उसका अस्तित्व किस प्रमाण से सिद्ध करोगे" किन्तु पर्यायदृष्टि से यह बात नहीं है। पर्यायष्टि से स्वयं द्रव्य का परिणमन ही उस रूप है। पर्यायदृष्टि से श्रीप्रवचनसार सूत्र १८६ में राग को 'द्रव्यजातस्य' कहा है तथा उसी शास्त्र के सूत्र में कहा है कि द्रव्य जिस समय जिस भाव में परिणमन करता है-उस समय वह उसी रूप है। श्री समयसारजी में द्रव्यदृष्टि की प्रधानता है। श्रीप्रवचनसारजी में दोनों का विस्तार है। अतः द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि का यथार्थ ज्ञान होना चाहिये अन्यथा जीव अनेकान्त के मर्म को नहीं पा सकेगा और कोई एक का आभासी हो जायेगा। इन भावों में पर्यायदृष्टि का कथन है। यह अङ्क पर्यायदृष्टि की मुख्यता से लिखा जा रहा है।[दोनों नयों के विषय जानने योग्य बराबर है किन्तु शुद्धता के लिये आश्रय करने योग्य तो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषयभूत सामान्य त्रैकालिक शुद्ध चैतन्य स्वरूप निज आत्मा ही है ऐसा समझना ] [अनेकान्त भी सम्यक् एकांत ऐसे निज पद की प्राप्ति के सिवाय किसी अन्य हेतु से उपकारी नहीं है । अपि द्रव्यनयादेशात् टेकोत्कीर्णोऽस्ति प्राणभृत् । नात्मसुरवे स्थितः कश्चित् पत्युतातीवदुःरवतान् ॥ १७२० ।। अन्वयः - अपि द्रव्यनयादेशात् प्राणभूत टंकोत्कीर्णः अस्ति [ किन्तु पर्यायदृष्ट्या ] कश्चित् आत्मसुखे स्थितः न अस्ति प्रत्युत अतीवदुःखवान् अस्ति। ___ अन्वयार्थ - यद्यपि द्रव्यार्थिक नय के कथन से प्राणी टंकोत्कीर्ण[ वैसे का वैसा ] है तो भी पर्यायदृष्टि से आत्मसुख में कोई भी स्थित नहीं है - उल्टा अत्यन्त दुःखी है। भावार्थ - जितनी यह बात सत्य है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव अनन्त गुणों के पूर्णस्वभावरूप अर्थात् सुखरूप स्थित है - उसी प्रकार यह बात भी उतनी ही पूर्ण सत्य है कि उसका परिणमन वर्तमान में उन सब गुणों का विभाव परिणमन होने से अत्यन्त दुःखरूप है। कोई द्रव्यार्थिक नय के एकान्त से जीव का वर्तमान दुःखस्वरूप [ विभाव स्वरूप] न माने तो यह उसकी भूल है। इसी को और स्पष्ट करते हैं। वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। उसके दोनों स्वरूपों का बराबर ध्यान रखना चाहिये। सामान्य शक्तिरूप में मोक्षरूप रहते हुवे भी प्रगट पर्याय में संसार [ विभाव] वास्तविक है - यह अब सिद्ध करते हैं क्योंकि पर्याय की मुख्यता से कथन चल रहा है: नाङ्गीकर्तव्यमेवैतत् स्वस्वरूपे स्थितोऽरित ना । बद्धो वा स्यादबद्धो वा निर्विशेषाद्यथा मणिः ॥ १७२१ ।। अन्वयः - एतत् एव न अङ्गीकर्तव्यं [ यत् ] ना बद्धः स्यात् वा अबद्धः स्यात् निर्विशेषात् स्वस्वरूपे स्थितः अस्ति यथा मणिः । अन्वयार्थ - यह भी स्वीकार नहीं करना चाहिये कि आत्मा चाहे बद्ध [संसारी ] हो या अबद्ध [ मुक्त ] हो, निर्विशेषता से स्वरूप में स्थित है जैसे मणि! ___ भावार्थ - स्वरूप में स्थिति पर्याय में होती है। अत: कोई द्रव्यार्थिक नय का एकांत पक्षपाती यह कहे कि आत्मा चाहे बद्ध हो या अबद्ध - दोनों अवस्थाओं में पूर्णरूप से स्वभाव में स्थित है जैसे मणि चाहे सर्राफ की दुकान में रखी हो या अंगूठी में लगी हो - एक जैसी ही है। यह बात नहीं है। बद्ध-संसार-विभाव इनका एक ही अर्थ है। अबद्धमोक्ष-स्वभाव इनका एक ही अर्थ है। विभाव में आत्मा दुःख में ही स्थित है। स्वभाव में आत्मा सुख में ही स्थित है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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