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________________ ४५८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अरत्युक्तलक्षणो रागश्चारित्रावरणोदयात् । अप्रमत्तगुणस्थानादर्वाक स्यान्जोमस्त्यसौ ॥ १६७५ ॥ अर्थ – उक्त लक्षण वाला [ बुद्धिपूर्वक राग] चारित्रावरण के उदय से होता है तथा वह [ राग ] अप्रमत्त सातवें गणस्थान से पहले होता है। ऊपर नहीं है। भावार्थ - राग दो प्रकार का होता है - एक बुद्धिपूर्वक - दूसरा अबुद्धिपूर्वक। पहले से छठे तक के राग को बुद्धिपूर्वक का राग कहते हैं क्योंकि वह स्थूल है और अपने ज्ञान की पकड़ में आता है और सातवें से दसवें तक के राग को अबुद्धिपूर्वक कहते हैं क्योंकि वह सूक्ष्म है और अपने ज्ञान की पकड़ में तो नहीं आता किन्तु बड़े ज्ञानों के गम्य है।यहाँ क्योंकि ज्ञानी का प्रकरण है इसलिये बुद्धिपूर्वक राग में केवल चौथे से छठे का चारित्रमोहजन्य राग ग्रहण किया गया है। अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मो रागश्चाबुद्धिपूर्वजः। अर्वाक क्षीणकषायेभ्यः स्याद्विवक्षावशान्न वा ।। १६७६ ॥ अर्थ - ऊपर वह अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म राग होता है और क्षीणकपाय [ बारहवें गुणस्थान ] से पहले-पहले होता है। विवक्षावश है अथवा नहीं भी हैं [ अबुद्धिपूर्वक राग की विवक्षा करें तो है और जो बुद्धिपूर्वक राग की विवक्षा हो - तो नहीं है। भावार्थ - सातवें से दसवें तक के राग को यदि इस अपेक्षा मे देखें कि वह अपने ज्ञानगम्य नहीं है तो वह होता हुआ भी एक प्रकार से नहीं हुये के बराबर है। विमृश्यैतत्परं कैश्चिदसद्भूतोपचारतः । रागवज्झानमञ्चारित सम्यक्त्वं तद्वटीरितम् || १६७७॥ अर्थ – केवल यह ही विचार करके किन्हीं आचार्यों के द्वारा असद्भूत उपचार से यहाँ [ प्रभत्त छठे गुणस्थान तक ] ज्ञान सराग कहा है और उसी प्रकार सम्यक्त्व भी सराग कहा है। भावार्थ - पूर्व सूत्रानुसार अबुद्धिपूर्वक राग को नहीं हुए के समान मानकर और चौथे, पाँचवें, छठे के बुद्धिपूर्वक राग की विवक्षा करके किन्हीं आचार्यों ने उस बुद्धिपूर्वक राग के सहचर वर्तते हुए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को ही सविकल्पक कह दिया है। यह कथन असद्भूत उपचार से किया गया है। इसका अर्थ यह है कि जो बात वास्तव में उसमें पाई तो न जावे और किसी कारणवश उसमें कही जावे उसको असद्भुत उपचार कहते हैं जैसे जिन्दा आदमी का शरीर चेतन तो नहीं है पर चेतन की सहचरता से उसे भी चेतन कह देते हैं। पर यह कहने मात्र की बात है। निश्चय की [वास्तविक ] बात यह है कि शरीर जड़ है। इसी प्रकार असद्भूत उपचार से बुद्धिपूर्वक राग के सहचर वर्तते हुए सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान को सविकल्पक कह देते हैं वास्तव में वे निर्विकल्पक राग रहित ] ही हैं। हेलोः परं प्रसिद्धैर्यैः स्थूललक्ष्यैरिति स्मृतम् । आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सतिकल्पकम् || १६७८॥ अर्थ - केवल इस हेतु से ही[बुद्धिपूर्वक राग के कारण ही] प्रसिद्ध उन स्थूल दृष्टि आचार्यों के द्वारा [अभेद दृष्टि से कथन करने वाले आचार्यों द्वारा ] ऐसा कहा गया है कि प्रमत्तःगुण स्थान तक [चौथे, पाँचवें, छठे में ] सम्यक्त्व और ज्ञान सविकल्पक है। ततस्तुओं तु सम्यवत्वं ज्ञान वा निर्विकल्पकम् । शुक्लध्यानं तदेवारित तारित ज्ञानचेतना || १६७९॥ अर्थ - और उन्हीं आचार्यों के द्वारा स्थूल दृष्टि से यह भी कहा गया है कि उससे ऊपर तो सम्यक्व और ज्ञान निर्विकल्पक है। वह ही शुक्ल ध्यान है और वहाँ ही ज्ञान-चेतना है [ उन आचार्यों का यह कथन धाराप्रवाह अखण्ड उपयोगात्मक ज्ञानचेतना की अपेक्षा जानना ताकि सिद्धान्त में कोई बाधा न आवे क्योंकि छठे तक लब्धिरूप ज्ञानचेतना तो नित्य रहती है और उपयोगात्मक कभी-कभी होती है। सातवें से निरन्तर अखण्ड धारा से बिना
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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