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द्वितीय खण्ड / छठी पुस्तक
प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यात्सा शुद्धचेतना ।
अस्तीति वासनोन्मेषः केषाञ्चित्स न सन्निह ॥ १६८० ॥
अर्थ :- [ आगम के इस स्थूल कथन से किन्हीं ने अपनी बुद्धि के दोष से यह समझ लिया है कि ] प्रमत्तों के [ चौथे-पाँचवें - छठेवालों के ] विकल्पपना होने से बुद्धिपूर्वक राग होने से ] यह शुद्ध ज्ञानचेतना नहीं है - सो यह उनका वासनाजन्य संस्कार है। वह सच्चा नहीं है।
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भावार्थ • आगम के उस कथन का आशय यह था कि पौधे, पाँचवें, छठेवालों के उपयोगात्मक ज्ञानचेतना अखण्ड धारा से नहीं है पर वहाँ उनके सर्वथा ज्ञानचेतना का निषेध करने का आशय नहीं था किन्तु उस कथन का आश्रय लेकर किन्हीं स्थूल बुद्धिवालों ने चौथे, पाँचवें, छठे में सर्वथा ज्ञानचेतना का अभाव समझ लिया अर्थात् चौथे, पाँचवे, छठे में केवल नव तत्वों की रागजनित श्रद्धा मात्र होती है - ज्ञानचेतना बिलकुल नहीं होती - ऐसी धारणा कर ली और गुरु महाराज कहते हैं कि उनकी इस धारणा ने एक ऐसा संस्कार जैसा पक्का रूप धारण कर लिया कि अब वे उस अपनी धारणा को बदलने के लिये भी तैयार नहीं पर यह उनकी गलत धारणा है। यह धारणा क्यों गलत है अब इसको आगे सूत्र १६८७ तक ७ सूत्रों में सिद्ध करते हैं।
यतः पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेत्परम् ।
परो वा नाश्रयेद्दोषं गुणं चापि पराश्रितम् || १६८१ ।।
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अर्थ - [ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इसलिए सविकल्प नहीं है ] क्योंकि पराश्रित [ एक के आश्रय रहने वाला ] दोष या गुण दूसरा आश्रय नहीं करता और उस दूसरे के आश्रय रहने वाला दोष या गुण पहला आश्रय नहीं करता • अर्थात् चारित्र के राग के कारण सम्यक्त्व या ज्ञान को सरागी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे उसके लिये पर हैं और वे उस राग को आश्रय नहीं करते ]।
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भावार्थ :- आत्मा में अनन्त गुण हैं। सबकी सत्ता भिन्न-भिन्न है। कार्य (पर्याय) भिन्न-भिन्न है । यथायोग्य निर्मित्त कारण भिन्न-भिन्न हैं। राग चारित्र गुण का विभाव परिणमन है। वह औदयिक भाव है। ज्ञान ज्ञानगुण का एक देश स्वभाव परिणमन है। उसमें ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम निमित्त है। सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण का स्वभाव परिणमन है। शुद्ध भाव है। उसमें दर्शनमोह का अनुदय निमित्त है। एक गुण के लिये दूसरा गुण पर है। चारित्र गुण के राग रूप दोष को भला क्षायोपशमिक ज्ञान या शुद्ध सम्यक्त्व भाव अपने में कैसे आश्रय कर सकता है। नहीं कर सकता। इसलिये सम्यक्त्व और ज्ञान को उपचार से सविकल्प कहने पर भी वह वास्तविक बात नहीं है। इसी को गुरुदेव स्वयं स्पष्ट करते हैं
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पाकाच्चारित्र मोहस्य रागोऽस्त्यौदयिकः स्फुटम् ।
सम्यक्त्वे स कुतो न्यायाज्ज्ञाने वानुदयात्मके || १६८२ ॥
अर्थ चारित्र मोह के उदय से राग है। वह प्रगद औदयिक भाव है । अनुदयात्मक सम्यक्त्व में [ क्षायिकक्षायोपशमिक या औपशमिक भाव रूप सम्यग्दर्शन में ] अथवा अनुदयात्मक ज्ञान में [ क्षायोपशमिक भाव रूप ज्ञान में] वह किस न्याय से कहा जा सकता है अर्थात् किसी न्याय से भी सम्यक्त्व या ज्ञान को सविकल्पक नहीं कहा जा
सकता।
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भावार्थ - राग औदयिक भाव है। आत्मा में केवल दोष और मलिनता है। निमित्त का स्वरूप है। सम्यक्त्व शुद्ध भान है। आत्मा का [ पारिणामिक का ] स्वभाव परिणमन है। ज्ञान आत्मा का त्रिकाली स्वभाव - लक्षण है । अब विचारिये तो सही। एक केवल दोष रूप- दूसरे दोनों केवल गुण रूप एक निमित्त का भाव - दो उपादान के भाव - उनका क्या मेल? कुछ भी नहीं। फिर सम्यक्त्व को और ज्ञान को सविकल्पक कहना सरासर भूल नहीं तो और क्या है । वह केवल उपचार कथन है। उसमें सत्यता कुछ नहीं। राग सम्यक्त्व को या ज्ञान को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाता । इसलिये इस राग के कारण सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान को सविकल्पक कहना भूल है। यह शिष्य की ग्रन्थ प्रारम्भ में की गई पहली शङ्का का उत्तर दिया।