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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
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और ऐसे कथन स्थूलदृष्टि [ संयोगी दृष्टि ] से किये जाते हैं। इसी प्रकार भाई वस्तु स्वरूप का कथन भी एक तो गुण भेद करके सूक्ष्म दृष्टि से किया जाता है जैसा कि हमने अभी ज्ञान के विकल्पात्मकपने के बारे में करके दिखलाया है और एक कथन स्थूल (संयोगी ) दृष्टि का होता है। सो आगम में जो सम्यक्त्व को सविकल्पक कहा है - वह सूक्ष्म तात्त्विक बात तो है नहीं पर स्थूलदृष्टि का [संयोगी दृष्टि का ] उपचार कथन है। सो उस उपचार का कारण भी हम तुम्हें अब समझाए देते हैं :
क्षायोपशमिक ज्ञान प्रत्यर्थ परिणामि यत् । तत्स्वस्मयम ज्ञानस्य किन्तु नियास्ति ॥ १६७१ ॥ प्रत्यर्थ परिणामित्वमर्थानामेतदस्ति यत् ।
अर्थमर्थ परिज्ञानं मुह्यद्रज्यद् द्विषयथा ॥ १६७२ ।।
क्षायोपशामिक जान जो प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमशील है वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है किन्त निश्चय से राग की क्रिया है। ज्ञान का पदार्थों में जो प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणामिपना कहा गया है - उसका भाव यह है कि ज्ञान पदार्थ पदार्थ के प्रति मोह करता है, राग करता है, द्वेष करता है।
भावार्थ - देख भाई! ज्ञान का स्वभाव मात्र जानना है जैसे केवलज्ञान पदार्थों को मात्र जानता रहता है। यह जो छद्मस्थों का क्षायोपशमिक ज्ञान है यह पहले एक पदार्थ को जानता है फिर इसको दूसरे पदार्थ के जानने की इच्छा होती है तो उस ज्ञेय को छोड़ कर दूसरे ज्ञेय पर जाता है। उसमें अपने या पराये की कल्पना रूप मोह भाव करता है। किसी को इष्ट मान कर राग करता है तो किसी को अनिष्ट मान कर द्वेष करता है। फिर उस ज्ञेय को छोड़ कर दूसरे ज्ञेय पर जाता है। वहाँ भी इसी राग-द्वेष-मोह भाव की क्रिया को करता है। इस प्रकार जिस पदार्थ को जानता रहता है उसी के प्रति राग-द्वेष-मोह भाव करता रहता है। इसमें इतने विवेक की आवश्यकता है कि उसमें जानने का काम तो ज्ञान का है और एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर ज्ञान का घूमाना और उसमें राग-द्वेष-मोह करना – ये ज्ञान की नहीं किन्त राग की क्रिया है। इसका सबूत यह है :
स्वसंवेदनप्रत्यक्षादरित सिद्धमिदं यतः।
रागावतं ज्ञाजमक्षान्तं रागिणो न तथा मुनेः ।। १६७३ ।। शब्दार्थ – अक्षान्तं - शान्ति रहित, आकुलित।
अर्थ - यह पूर्वोक्त कथन स्वसंवेदन[स्वानुभव ] प्रत्यक्ष से सिद्ध है क्योंकि रागी पुरुष का[अज्ञानी का ] रागयुक्त ज्ञान जैसा शान्ति रहित [आकुलित ] होता है - वैसा मुनी का [ज्ञानी का नहीं होता।
भावार्थ - हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि एक ही पदार्थ को अज्ञानी भी जानता है और उसी पदार्थ को एक छठे गुणस्थान का ज्ञानी मुनि भी जानता है। यदि जानने की अपेक्षा देखें तो ज्ञान का काम जानना है और वह दोनों अवस्थाओं में जान ही रहा है। फिर अज्ञानी का ज्ञान दुःखी और मुनी का ज्ञान सुखी - ऐसा क्यों? इसका कारण यह है कि जिसके ज्ञान में जितना राग है-वह उतना ही आकुलित [दुःखी] है और जिसके ज्ञान में जितना कम राग है वह उतना ही निराकुल है। इससे पता चलता है कि जानना ज्ञान की क्रिया है और प्रत्येक पदार्थ के प्रति मोह-राग-द्वेष करना राग की क्रिया है। जैसा कि पहले सिद्ध करके आये हैं दोनों क्रियायें स्वतंत्र भिन्न-भिन्न है।फिर भी इतनी बात जरूर है कि
अस्ति ज्ञानातिनाभूतो रागो बुद्धिपुरस्सरः ।
अज्ञातेऽर्थे यतो न स्याद्रागभावः रखपुष्पवत् ॥ १६४७ ॥ अर्थ -बुद्धिपर्वक रागज्ञान से अविनाभत है क्योंकि नहीं जाने हये पदार्थ में राग भाव नहीं होता है जैसे आकाश पुष्प में किसी को राग नहीं होता है।
भावार्थ-वह बुद्धिपूर्वकरागज्ञान से अविनाभत है क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि पहले जीव पदार्थ को जानता है और फिर उसमें मोह-राग-द्वेष [ मेरे-तेरे, अच्छे-बुरे ] की कल्पना करता है। बिना जाने हुये पदार्थ में [ आकाश के फूल में या बंध्या के पुत्र में ] किसी को राग नहीं होता।