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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
समाधान ११६-११७ सत्यं तन्न यत: स्याटिदमेव विवक्षितं यथा दव्ये ।
न गुणेभ्यः पृथगिह तत्सटिति दव्यं च पर्ययाश्चेति ॥ ११६ ॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका यद्यपि ठीक है तथापि उसका उत्तर इस प्रकार है कि गुणों से सत् अर्थात् द्रव्य और पर्याय कोई भिन्न पदार्थ नहीं है क्योंकि गुणों का समुदाय ही तो द्रव्य है और गुणों का परिणमन ही पर्याय है। इसलिये जिस प्रकार द्रव्य में विवक्षावश कथंचित नित्यता और कथंचित अनित्यता आती है, उसी प्रकार गुणों में भी नित्यता और अनित्यता विवक्षाधीन है। वह इस प्रकार
लाधिहित्याः सनिरारा निजापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः ।
स च परिणामोऽवस्था तेषामेव न पृथक्त्वसत्ताकः ॥ ११७॥ अर्थ-यद्यपि गण नित्य हैं तथापि बिना किसी प्रयत्न के प्रति समय परिणमन करते हैं। वह परिणाम भी उन्हीं गुणों की अवस्था विशेष है। भित्र सत्तावाला नहीं।
शंका
ननु तदवस्थो हि गुणः किल तदवस्थान्तरं हि परिणामः ।
उभयोरन्तर्वत्विादिह पृथगेतदेवमिदमिति चेत् ॥११८ ॥ अर्थ-शंकाकार का कहना है कि गुण तो सदा एकसा रहता है और परिणाम एक समय से दूसरे समय में सर्वथा । जुदा है। तथा परिणाम और गुण इन दोनों के बीच में रहने वाला द्रव्य भिन्न ही पदार्थ है यदि ऐसा कहें तो?
समाधान ११९ से १२३ तक तन्न यतः सदवस्थाः सर्वा आक्षेडितं यथा वस्तु ।
न तथा ताभ्यः पृथगिति किमपि हि सत्तावमन्तरं वरन्तु ॥ ११९ ।। अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि परिणाम गुणों की ही अवस्था विशेष है और वह गुण और उनके परिणाम अर्थात् सत् की सब अवस्थायें मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं। उन गुण पर्यायों से भिन्न सत्तावाली वस्तु कोई जुदा पदार्थ नहीं है।
भावार्थ-शंकाकार ने गुणों को उनके परिणामों से भिन्न बतलाया था और उसमें हेतु दिया था कि एक समय में जो परिणाम है दूसरे समय में उससे सर्वथा भित्र ही है। इसी प्रकार वह भी नष्ट हो जाता है। तीसरे समय में जुदा परिणाम ही पैदा होता है। इसलिये गुणों से परिणाम सर्वथा भित्र है। इसका उत्तर दिया गया है कि यद्यपि परिणाम प्रति समय भित्र है तथापि जिस समय में जो परिणाम है वह गुणों से भिन्न नहीं है, उन्हीं की अवस्था विशेष है। इसी प्रकार प्रति समय का परिणाम गुणों से अभिन्न है। यदि गुणों से सर्वथा भिन्न ही परिणाम को माना जाय तो प्रश्न हो सकता है कि वह परिणाम किसका है ? बिना परिणामी के परिणाम होना असम्भव है। इसलिये गुणों का परिणाम गुणों से सर्वथा भिन्न नहीं है परिणामों से भिन्न कोई गुण नहीं और गुणों से भिन्न कोई द्रव्य नहीं। अतः सब गुणपर्याय मिलकर ही वस्तु है।
नियतं परिणामित्वादुत्पाढव्ययमया ये एव गुणाः ।
टडोत्कीर्णन्यायाते एव नित्या यथा स्वरूपत्वात् ।। १२०॥ अर्थ-जिस प्रकार परिणमनशील होने से गुण उत्पाद, व्यय स्वरूप हैं उसी प्रकार टङ्कोत्कीर्ण न्याय से अपने स्वरूप में सदा स्थिर रहते हैं इसलिये वे नित्य भी हैं।
न हि पुनरेकेषामिह भवति गुणानां निरन्तयो नाशः । अपरेषामुत्पादो दव्यं
यत्तद्वयाधारम् || १२१ ॥ अर्थ-ऐसा नहीं है कि किन्हीं गुणों का तो सर्वथा नाश होता जाता है और दूसरे नवीन गुणों की उत्पत्ति होती जाती है तथा उस उत्पन्न और नष्ट होने वाले गुणों का आधार द्रव्य है।