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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रमाण - ' तद्भावाव्ययं नित्यं' इति मोक्षशास्त्रे,
ज्ञानं परिणामि यथा घटस्य चाकारतः पटाकृत्या ।
किं ज्ञानत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्कथं न नित्यं स्यात् ॥ ११० ॥
अर्थ - उदाहरणार्थ जो ज्ञान पहले घट के आकार रूप से परिणमन कर रहा था वह यद्यपि पट के आकार रूप से बदल जाता है, तो क्या यहाँ ज्ञानत्व नष्ट हो जाता है? यदि कहा जाय कि ऐसा होने पर भी ज्ञानत्व नष्ट नहीं होता है। यदि ऐसा है तो फिर वह नित्य क्यों न सिद्ध होगा ? अवश्य नित्य सिद्ध होगा ।
भावार्थ असा का ज्ञान गुण परिशील है। कभी वह घट के आकार होता है तो कभी पट के आकार हो जाता है । घटाकार से पटाकार होते समय उसमें क्या ज्ञान गुण नष्ट हो जाता है ? नहीं। ज्ञान गुण नष्ट नहीं होता, केवल अवस्था भेद हो जाता है। वह पहले घट को जानता था अब पट को जानने लगा है। इतना ही भेद हुआ है। जानना दोनों अवस्थाओं में बराबर है। इसलिये ज्ञान का कभी नाश नहीं होता है। जब ज्ञान का कभी नाश नहीं होता है यह बात सुप्रतीत है तो वह नित्य क्यों नहीं है ? अवश्य है।
दृष्टान्तः किल वर्णों गुणो यथा परिणमन् रसालकले । हरितात्पीतस्तरिक वर्णवं नष्टमिति
नित्यम् ॥ १११ ॥
अर्थ- दृष्टान्त-जिस प्रकार आम के फल में रूप गुण बदलता रहता है। आम की कच्ची अवस्था में हरा रंग रहता है। पकने पर उसमें पीला रंग हो जाता है। क्या हरे से पीला होने पर उसका रूप (रंग) नष्ट हो जाता है ? यदि नहीं नष्ट होता है तो क्यों नहीं रूप गुण को नित्य माना जावे ? अवश्य मानना चाहिये ।
भावार्थ- हरे रंग से पीला रंग होने में केवल रंग की अवस्था में भेद हो जाता है। रंग दोनों ही अवस्थाओं में है। इसलिये रंग सदा रहता है वह चाहे कभी हरा हो जाय, पीला हो जाय, कभी लाल हो जाय (रंग सभी अवस्थाओं में है। इसलिये रंग (रूप) गुण नित्य है। यह दृष्टान्त अजीव का है। पहला जीव का था ।
वस्तु यथा परिणामि तथैव परिणामिनो गुणाश्चापि । तरमादुत्पादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु ॥ ११२ ॥
अर्थ - जिस प्रकार वस्तु प्रतिक्षण परिणमनशील है उसी प्रकार गुण भी प्रतिक्षण परिणमनशील है। इसलिये जैसे वस्तु का उत्पाद और व्यय होता है उसी प्रकार गुणों का उत्पाद और व्यय होता है।
ज्ञानं गुणो यथा स्यान्नित्यं सामान्यवत्तयाऽपि यतः |
नष्टोत्पन्नं च तथा घटं विहायाथ पटं परिच्छिन्दन् ॥ ११३ ॥
अर्थ - यद्यपि सामान्य दृष्टि से ज्ञान नित्य है तथापि वह कभी घट को और कभी पट को जानता है इसलिये अनित्य भी है।
भावार्थ - अवस्था ( पर्याय) की अपेक्षा से ज्ञान अनित्य हैं। अपनी सत्ता की अपेक्षा से नित्य है।
संदृष्टी रूपगुणो नित्यश्चाम्रे ऽपि वर्णमात्रतया ।
नष्टोत्पन्नो हरितात्परिणममानश्च पीतवत्त्वेन ॥ ११४ ॥
अर्थ दृष्टान्त- आम में रूप सदा रहता है इसकी अपेक्षा से यद्यपि रूप गुण नित्य है तो भी हरित से पीत अवस्था में बदलने से वह नष्ट और उत्पन्न भी होता है।
नोट- यहाँ तक गुणों का नित्यानित्यात्मक स्वरूप कहकर अब इसी को शंका समाधानों द्वारा पीसते हैं।
शंका
ननु जिल्या हि गुणा अपि भवन्त्वनित्यास्तु पर्ययाः सर्वे ।
तत्कि द्रव्यवदिह किल नित्यानित्यात्मका गुणा प्रोक्ताः ॥ ११५ ॥
अर्थ - शंका- यह बात निश्चित है कि गुण नित्य होते हैं और पर्यायें सभी अनित्य होती हैं। फिर क्या कारण है कि द्रव्य के समान गुणों को भी नित्यानित्यात्मक बतलाया है ?