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________________ ३० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी दृष्टान्ताभासोऽयं स्याद्धि विपक्षस्य मृत्तिकायां हि । एके नश्यन्ति गुणा जायन्ते पाकजा गुणास्त्वन्ये ॥ १२२ ॥ अर्थ-जो गुणों का नाश और उत्पाद मानते हैं, उनका उक्त कथन की पुष्टि में यह कहना कि मिट्टी में पहले गुण तो नष्ट हो जाते हैं और पाक से होनेवाले दूसरे गुण पैदा हो जाते हैं। यह केवल दृष्टांताभास है। भावार्थ-नैयायिक दर्शन का सिद्धान्त है कि जिस समय कच्चा घड़ा अग्नि ( आवा) में दिया जाता है उस समय उस घड़े के पहले सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। बड़े का पाक होने से उसमें दूसरे ही नवीन गुण पैदा हो जाते हैं। इतना ही नहीं, वैशेषिकों का तो यहाँ तक भी सिद्धान्त है कि अग्नि में जब घड़े की पाकावस्था होती है तब काला धड़ा बिरहकर जात है। उस पर अलग-अलग बिखर जाते हैं। फिर शीघ्र ही रक्त रूप पैदा होता है और पाकज परमाणु इकट्ठे होते हैं। उनसे कपाल बनते हैं। उन कपालों से लाल घड़ा बनता है। इस कार्य में (घड़े के फूटने और बनने में) जो समय लगता है वह अति सूक्ष्म है इसलिये जाना नहीं जाता। इस नैयायिक सिद्धांत के दृष्टांत को देकर गुणों का नाश और उत्पत्ति मानना सर्वथा मिथ्या है। यह दृष्टांत सर्वथा बाधित है। यह बात किसी विवेकशाली की बुद्धि में नहीं आ सकती है कि अग्नि में घड़े के गुणों का नाश हो जाता हो अथवा वह घड़ा ही अग्नि में फूटकर फिर झटपट अपने आप तैयार हो जाता हो। इसलिये उक्त नैयायिकों का सिद्धांत सर्वथा बाधित है। इस दृष्टांत से गुणों का नाश और उत्पनि मानना भी मिथ्या है। इसी बात को ग्रन्धकार स्वयं प्रगट करते हैं: तत्रोत्तरमिति सम्यक सत्यां तन च तथाविधायां हि । किं पृथिवीत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्तथा कथं न स्यात् || १२३।। अर्थ-इसका समीचीन उत्तर यह है कि वहाँ पर इस प्रकार की विधि होने पर अर्थात् घड़े का कच्चे से पक्के रूप परिणमन होने पर (मिट्टी के पकते समय) क्या मिट्टीपने का नाश हो जाता है? यदि मिट्टीपने का नाश नहीं होता तो उस समय वह पृथ्वीत्व गुणवाली क्यों न मानी जाय। इसलिये गुण नित्यानित्यात्मक कैसे नहीं हैं, अवश्य हैं। भावार्थ-गुणों का परिणमन अर्थात् अनित्यपना तो वादी ने स्वयं स्वीकार कर ही लिया था । नित्यपना-मिट्टीपने से आचार्य महाराज ने सिद्ध कर दिया। इस प्रकार जैन सिद्धान्तानुसार गुणों को नित्या-नित्यात्मक सिद्ध कर दिया। शंका १२४-१२५ दो श्लोक इकडे नन केवलं प्रदेशा व्यं देशाश्रया विशेषास्त । गुणसंज्ञका हि तस्माद्भवति गुणेभ्यश्च द्रव्यमन्यत्र ॥ १२५॥ अर्थ-शंका-जो प्रदेश हैं वे ही द्रव्य कहलाते हैं। देश के आश्रय से रहनेवाले जो विशेष हैं वे ही गुण कहलाते हैं। इसलिये गुणों से द्रव्य भिन्न है। शंका बालू तत एव यथा सुघटं भङ्गोत्पाटधु वायं दव्ये ।। न तथा गुणेषु तत्स्यादपि च व्यरतेषु वा समस्तेषु ॥ १२५ ॥ अर्थ-जब गुणों से द्रव्य भिन्न है तब उत्पाद-व्यय-धौव्य ये तीनों द्रव्य में जिस प्रकार सुघटित होते हैं, उस प्रकार गुणों में नहीं होते । न तो किसी-किसी गुण में होते हैं और न गुण समुदाय में ही होते हैं ? भावार्थ-शंकाकार का यह अभिप्राय है कि द्रव्यरूप देश नित्य है उसकी अपेक्षा से ही धौव्य है और गुण रूप विशेष अनित्य है। उनकी अपेक्षा से ही उत्पाद व्यय है। समाधान १२६ से १३१ तक तन्न यतः क्षणिकत्वापत्तेरिह लक्षणाद गुणानां हि । तदभिज्ञानविरोधात्क्षणिकत्वं बाध्यतेऽध्यक्षात् ॥ १२६ ॥ अर्थ--उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि इस लक्षणा से गुणों में क्षणिकता आती है। गुणों में क्षणिकता 'यह वही है' इस प्रत्यभिज्ञान से प्रत्यक्ष बाधित हैं।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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