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द्वितीय खण्ड/ छठी पुस्तक
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भावार्थ • और देख भाई ! जो अपनी आत्मा में शुद्धोपयोग है • वह उपयोगात्मक ज्ञानचेतना है। वह तो है ही सर्वथा स्व में उपयुक्त। उसमें दूसरे पर पदार्थ पर उपयोग की संक्रान्ति ही नहीं है। इसलिये वह निर्विकल्प है अर्थात् पर पदार्थ पर उपयोग की संक्रान्ति से रहित है। इसलिये उसमें भी पर में ज्ञानचेतना होने का प्रश्न या अवकाश ही नहीं है । शिष्य ने सूत्र ९६१४ में प्रश्न किया था कि क्या परपदार्थ में भी ज्ञानचेतना होती है तो उत्तर दिया कि परपदार्थ से लब्धि रूप ज्ञानचेतना और उपयोग रूप ज्ञानचेतना दोनों का ही सम्बन्ध नहीं है। चेतना तो स्व में ही होती है। पर में होती ही नहीं। पर के जानने से ज्ञान चेतना का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यहाँ तक शिष्य के सूत्र १६१४ में किये गये प्रश्न का समाधान किया।
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यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि पहले सब क्षायोगराणिक ज्ञानों को कहा गया है और यहाँ पर उसी को [ स्व शुद्ध उपयोग को ] असंक्रमणात्मक [ निर्विकल्पक ] कहा गया है, सो क्यों? इसके उत्तर में यह समझना चाहिए कि वहाँ पर एक ही शुद्धात्मा में उपयोग की पुनर्वृत्ति को संक्रमणात्मक ज्ञान कहा गया है और यहाँ पर ज्ञानचेतना रूप उपयोग के अस्तित्व काल में शुद्धात्मा से हट कर पदार्थान्तर में ज्ञान का परिणमन न होने की अपेक्षा से उसे संक्रमणात्मक [ निर्विकल्पक ] कहा गया है। ऐसा भी क्यों ? इसका उत्तर यह है कि वहाँ क्षायोपशमिक तथा क्षायिक ज्ञान का स्वभाव निर्णय करना था और यहाँ दूसरे पदार्थ में ज्ञानचेतना है या नहीं यह सिद्ध करना है। दोनों जगह विषय का अन्तर होने से संक्रमण शब्द के अर्थ में अन्तर है ।
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अगली भूमिका - अब गुरु महाराज शिष्य से कहते हैं कि तुमने जो सूत्र १६१४ में यह पूछा था कि क्या पर पदार्थ में ज्ञान चेतना होती है सो ज्ञान चेतना तो नहीं होती - हाँ तुम हम से यह पूछ सकते हो कि जिस समय सम्यग्दृष्टि का उपयोग स्व से छूट कर पर में जाता है। उस समय उससे उनको क्या हानि है? कुछ हानि है या नहीं ? शङ्का अस्ति प्रश्नावकाशस्य लेशमात्रोऽत्र केवलम् । यत्कश्चिद्बहिरर्थे स्यादुपयोगोऽन्यत्रात्मनः ॥ १६३५ ॥
शङ्का -- अब यहाँ पर केवल इतने ही प्रश्न को लेशमात्र अवकाश है कि जब [ सम्यग्दृष्टि का ] आत्मा के अतिरिक्त किसी बहिर पदार्थ में उपयोग जाता है [ तो उससे कुछ हानि है या नहीं ] ?
समाधान सूत्र १६२६ से १६६३ तक ३८
अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदयः ।
आत्मपरोभयाकारभावकश्च प्रदीपवत् ॥ १६२६ ॥
अर्थ यह ज्ञानोपयोग के स्वभाव की महिमा का उदय है कि वह स्व और पर दोनों के स्वरूप का प्रकाशक है जैसे दीपक स्व पर प्रकाशक है।
भावार्थ - भाई ! ज्ञान का काम जानना है और स्व तथा पर सबको जानने का है। स्व के जानने में कुछ संवर निर्जरा अधिक होती हो और पर के जानने में कुछ कम होती हो सो बात नहीं है। या स्व के जानने में बंध नहीं होती हो और पर के जानने में बंध होती हो - सो बात भी नहीं है। वह तो जैसा स्वभाव से स्व का प्रकाशक (जानने वाला) है उसी प्रकार स्वभाव से पर का प्रकाशक [ जानने वाला ] है। इसलिये ज्ञान के स्व या पर के जानने से संवर निर्जरा
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या बंध- अबंध अर्थात् गुण-दोष का कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। जैसे पर को प्रकाशता है। इसी प्रकार जैसे ज्ञान स्व को प्रकाशता है को स्पष्ट करते हैं :
दीपक स्व को प्रकाशता है उसी प्रकार निर्विशेषपने उसी प्रकार निर्विशेषपने पर को प्रकाशता है। इसी
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निर्विशेषाद्यथात्मानमिव
ज्ञेयमवैति च ।
तथा मूर्तानामभूताँश्च धर्मादीनवगच्छति ॥ १६२७ ॥
अर्थ विशेषता रहित जैसे वह ज्ञान आत्मा को जानता है, ठीक उसी प्रकार अन्य ज्ञेय को भी जानता है तथा [ज्ञेय पदार्थों में ] मूर्त पदार्थों को और अमूर्त धर्मादि को भी जानता है।