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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - ज्ञान का स्वभाव जैसे स्व को जानने का है - उसी प्रकार पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल सबको जानने का है अर्थात् ऐसी कोई बात ही नहीं जिसको ज्ञान न जानता हो अर्थात् मूर्तिक वस्तु को भी जानता है और अमूर्तिक वस्तु को भी जानता है।
स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा नोपयुक्तः स एव हि ।
परस्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्तः स एव हि ।। १६२८ ॥
अर्थ - वह कभी अपने स्वरूप में (उपयोग रूप ) उपयुक्त होता है अथवा अपने स्वरूप में उपयुक्त नहीं भी होता है । इसी प्रकार वह कभी पर पदार्थ में उपयुक्त होता है अथवा पर पदार्थ में उपयुक्त नहीं भी होता है [ अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान कभी स्व को जानता है तो कभी पर को जानता है ]।
भावार्थ - केवलज्ञान का स्वभाव तो ऐसा है कि वह एक ही समय में स्व पर सबको जान लेता है। उपयोग का परिवर्तन नहीं करता। पर भाई! क्षायोपशमिक ज्ञान का तो स्वभाव ही ऐसा है कि कभी स्व को जानता है तो कभी घर को जानता है। पर स्व को जाने या पर को इससे कुछ लाभ-हानि नहीं है यही अब स्पष्ट करते हैं :स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोत्कर्षाय स वस्तुतः I उपयुतः परत्रापि नापकर्षाय नवलः ॥ १६२९ ॥
अर्थं वह उपयोग अपने में ही उपयुक्त होकर भी वास्तव में [ लाभ ] के लिये नहीं है और पर में वास्तव में अपकर्ष [ हानि ] के लिये नहीं है।
उपयुक्त
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भावार्थ - सारा जगत यह मानता है कि उपयोग का स्व में रहना अच्छा है और पर में जाना बुरा है तो आचार्य कहते हैं कि यह बड़ी भारी भूल है। ज्ञान का हानि लाभ से कुछ सम्बन्ध ही नहीं है।
तस्मात्स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया ।
मा सीदसि महाप्राज्ञ सार्थमर्थमवैति भोः ॥ १६३० ॥
अर्थ – इसलिये अपने में स्थित रहने के लिये दूसरे पदार्थ से हट कर एकाकार [ आत्माकार ] करने की इच्छा सेतू खेद मत कर! हे महा बुद्धिमान् ! प्रयोजनभूत अर्थ ( बात ) को जान ।
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भावार्थ :- इस भाव से कि ज्ञान का स्व में रहना लाभदायक है और पर में जाना हानिकारक है - तू पर को जानने से दुःखी मत हो! यह बात ही भूलभरी है। स्व या पर के जानने से हानि-लाभ का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। हे भाई! पहले प्रयोजनभूत बात को जान • अर्थात् पहले इस बात का ज्ञान कर कि गुण [ लाभ ] किन्हें कहते हैं? वे कौनकौन से हैं? उनकी उत्पत्ति किस कारण से होती है? दोष (हानि ) किन्हें कहते हैं ? वे कौन-कौनसे हैं ? उनकी उत्पत्ति किस कारण से होती है? तब तुझे पता चलेगा कि उपयोग का पर में जाने से कुछ लाभ या हानि है भी या नहीं या यह कल्पना ही मिथ्या है।
चर्यया पर्यटन्जैव ज्ञानमर्थेषु लीलया ।
न दोषाय गुणायाथ नित्यं प्रत्यर्थमर्थसात् ॥ १६३१ ॥
अर्थ
• ज्ञान पदार्थों में लीलामात्र से घूमता फिरता है। वह वास्तव में प्रत्येक पदार्थ को सदा जानता हुआ न तो दोष के लिये है और न गुण के लिये है। अर्थात् हर एक पदार्थ को जानना ज्ञान का धर्म है। गुण-दोष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। स्व को जानने में वह कुछ गुण पैदा करता हो और पर को जानने में कुछ दोष पैदा करता हो यह बात नहीं है।
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भी
भावार्थ
नहीं है किन्तु स्व पर दोनों के जानने का है और स्वभाव से कभी हानि नहीं हुआ करती।
दोषों का वर्णन सूत्र १६३२ से १६३४ तक ३
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भाई ! सबसे पहले यह नियम ध्यान में रहना चाहिये कि ज्ञान का स्वभाव केवल स्व को ही जानने का
दोषः सम्यग्दृशो हानिः सर्वतोऽशांशतोऽथवा । संतराग्रेसरायाश्च निर्जराया: क्षतिर्मनाक || १६३२ ॥
अर्थ - दोष ( १ ) सम्यग्दर्शन की सर्वांश से अथवा ( २ ) कुछ अंश रूप से हानि होना है तथा ( ३ ) संवरपूर्वक निर्जरा की कुछ क्षति होना भी दोष है।