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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
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भावार्थ - क्षायिक ज्ञान तो एक उपयोग से ही एक समय में सब ज्ञेयों को विषय कर लेता है। उसको उपयोग की प्रवृत्ति का परिवर्तन नहीं करना पड़ता। किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान एक उपयोग से एक बार एकही पदार्थ को जानता है फिर उपयोग वहाँ से हटकर दूसरे पदार्थ को जानता है। यह जो एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय पर उपयोग का जोड़ना है इसको उपयोगसंक्रान्ति या पुनर्वृत्ति या क्रमवर्तित्व या ज्ञप्ति परिवर्तन या विकल्प कहते हैं। अर्थ उपयोग का बदलना है। यह बात क्षायोपशामिक ज्ञान में ही है। क्षायिक ज्ञान में नहीं है। ज्ञान गुण है। क्षायिक ज्ञान और क्षायोपशमिक ज्ञान उसकी पर्याय है। जानने का कार्य पर्याय हशा है गुण नहीं। हाँ महाभूति का प्रकार है। उसके सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्ज्ञान की ५ पर्याय हैं। उनमें एक क्षायिक पर्याय है जिसको केवलज्ञान कहते हैं। उसमें उपयोग संक्रान्ति नहीं है। शेष चार ज्ञान क्षायोपशमिक पर्यायें हैं। उन चार पर्यायों में उपयोग संक्रान्ति होती है। उसी का दूसरा नाम विकल्प है।
क्षायोपशमिकं तत्रयदर्थादक्षार्थसम्भवात ।
क्षायिकात्यक्षज्ञानस्य संकान्तेरप्यसम्भवात् ॥ १६०० ॥ शब्दार्थ - अर्थात् = क्योंकि ।।
अर्थ - वह विकल्प क्षायोपशमिक ज्ञान है क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के निमिन से उत्पन्न होता है। क्षायिक अतीन्द्रिय ज्ञान में संक्रान्ति नहीं होती है। (अर्थात् ज्ञेय से ज्ञेयान्तर नहीं होता है।
भावार्थ -- इस सूत्र में गुरु महाराज ने उपयोग संक्रान्ति का कारण बताया है कि जो भी ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न होगा- वह अवश्य संक्रान्ति रूप होगा। केवलज्ञान क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता है - अतः वह संक्रान्ति रूप भी नहीं है। इसलिये क्षायोपशमिक ज्ञान को तो विकल्प कहते हैं पर क्षायिक ज्ञान को नहीं कहते क्योंकि उपयोग संक्रान्ति का नाम विकल्प है।
अस्ति झायिकज्ञानस्य विकल्पत्वं रवलक्षणात ।
लार्थादर्थान्तराकारयोगसंक्रान्तिलक्षणात 11940१॥ अर्थ - क्षायिक ज्ञान के विकल्पपना अपने लक्षण से है (क्योंकि ज्ञान का लक्षण सविकल्पक और दर्शन का लक्षण निर्विकल्पक है। इस अपेक्षा से क्षायिक ज्ञान सविकल्पक जरूर है)।पर एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के आकार रूप उपयोग के परिवर्तन रूप लक्षण के वह सविकल्पक नहीं है।
भावार्थ-विकल्प शब्द का अर्थ एक तो उपयोग संक्रान्ति है (ज्ञप्ति परिवर्तन है) और दूसरा विकल्प शब्द का अर्थ "साकार' है अर्थात् उपयोग का ज्ञेयाकार रूप होना है। यह जो विकल्प शब्द का दूसरा साकार ( ज्ञेयाकार) अर्थ है - यह तो ज्ञान का स्वलक्षण है। अत: क्षायिक ज्ञान में भी पाया जाता है क्योंकि उसका उपयोग भी स्व और पर - संपूर्ण ज्ञेयों के आकार होता है। इस कारण से विकल्पात्मक या सविकल्पक तो केवलज्ञान को भी कहते हैं पर क्षायिकज्ञान में विकल्प का अर्थ उपयोग संक्रान्ति नहीं है। इसी को स्वयं स्पष्ट करते हैं।
तल्लक्षणं स्वापूर्वार्थविशेषग्रहणात्मकम् ।
एकोऽथों ग्रहणं तत्स्यादाकारः सविकल्पता ॥ १६०२ ।। अर्थ- उस क्षायिक ज्ञान का लक्षण स्व को (अपने को - ज्ञानको) और अपूर्वार्थ को( पर को- सम्पूर्ण ज्ञेयों को) विशेष रूप से (साकार रूप से) ग्रहणस्वरूप है (जानने रूप है)। उस क्षायिक ज्ञान का विषयभूत पदार्थ एक है ( सब लोकालोक एक बार में ही ज्ञेय हो जाता है। पुनः दूसरे पदार्थ को जानने के लिए ज्ञप्ति परिवर्तन नहीं करना पड़ता। इसलिये उसका विषय एक पदार्थ कहा है। ग्रहण नाम आकार का है। अतः ( ज्ञान का स्व और अपूर्वार्थ के आकार रूप होना ही क्षायिक ज्ञान में ) सविकल्पता है।
भावार्थ - जो ज्ञान अपने आपको जानता है साथ ही सब परपदार्थों को जानता है - परन्त उपयोग से उपयोगान्तर नहीं होता, उसको क्षायिक ज्ञान कहते हैं। यद्यपि ज्ञायिक ज्ञान में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है तथापि उसमें छगस्थ ज्ञान की तरह कभी किसी पदार्थ का त्याग और कभी किसी पदार्थ का ग्रहण नहीं है। क्षायिक ज्ञान सभी पदार्थों को एक साथ ही जानता है - इसलिये उसमें उपयोग संक्रान्ति रूप लक्षण घटित नहीं होता है परन्त ज्ञेयाकार होने से वह सविकल्पक अवश्य है।
पता || १६०पर को सार्थ एक