SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी विकल्पः सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारी मनागधि। योगसंक्रान्तिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना ।। १६०३ ॥ अर्थ - वह विकल्प (जो क्षायिक ज्ञान का स्वरूप है ) इस प्रकरण में जरा भी अधिकारी (प्रयोजनभूत) नहीं है। जो क्षायोपशमिक ज्ञान में उपयोगसंक्रान्ति रूप विकल्प है - वह यहाँ प्रकरण में आया हुआ है। भावार्थ - शंका समाधान का प्रकरण यह चल रहा है कि सम्यग्दर्शन विकल्पात्मक है या नहीं और चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि के ज्ञान-चेतना है या नहीं। सो गुरु महाराज कहते हैं कि इस प्रकरण में क्षायिक ज्ञान का स्वाभाविक लक्षण रूप जो ज्ञेयाकार रूप विकल्पपना है - उससे कुछ प्रयोजन नहीं है किन्तु, क्षायोपशमिक ज्ञान में जो विकल्प का अर्थ उपयोग संक्रान्ति है, वह अर्थ ही इस प्रकरण में कार्यकारी है। ग्रहण किया गया है। ऐन्द्रियं तु पुनर्ज्ञानं न संक्रान्तिमृते क्वचित् । योयम्य मार्ग यागदविर्शान्तरे गतिः ॥ १६०४ ॥ अर्थ - और ऐन्द्रिय ज्ञान तो संक्रान्ति के बिना कभी भी नहीं होता है क्योंकि इस ज्ञान का प्रत्येक क्षण में एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में गमन होता रहता है ( अर्थात् ज्ञप्तिपरिवर्तन होता ही रहता है। उपयोग संक्रान्ति होती ही रहती है। इदंत कमवाय॑रित न स्यादकमवति यत । एका व्यक्ति परित्यज्य पुनर्व्यक्ति समाश्रयेत् ॥ १६०५ ॥ अर्थ – यह (ऐन्द्रिय ज्ञान ) तो कमवर्ती है - अक्रमवती नहीं है क्योंकि एक ज्ञेय को छोड़ कर फिर दूसरे ज्ञेय को आश्रय करता है। जिस प्रकार क्षायिक ज्ञान अक्रमवर्ती है - उस प्रकार क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं है - यह क्रमवती है)। भावार्थ - एक ही समय में एक उपयोग से ही सब ज्ञेयों को जानना और फिर उपयोग न फेरना - इसको अक्रम कहते हैं। यह अक्रम रूप वृत्ति केवलज़ान में ही पाई जाती है और एक बार एक ज्ञेय को जानना, फिर दूसरी बार दूसरे ज्ञेय को जानना, फिर तीसरी बार तीसरे ज्ञेय को जानना - इसको क्रमवर्तीपना कहते हैं। यह क्रमरूप वृत्ति क्षायोपशमिक ज्ञान में ही पाई जाती है। इसलिये क्षार्यापशमिक ज्ञान को ही क्रमवर्ती कहते हैं। क्षायिक जान को नहीं। इयं त्वावश्यकी वृत्तिः समव्यप्तेरिवाद्वया । इयं तत्रैव नान्यत्र तत्रैवेयं न चेतरा ॥ १६०६॥ अर्थ - यह इस ज्ञान की आवश्यकी वृत्ति है ( अर्थात क्रमवीपनाक्षायोपशामिक ज्ञान में पाया ही जाता है क्योंकि समव्याप्ति होने से यह वृत्ति ऐन्द्रिय ज्ञान से अभिन्न है ( अर्थात् जहाँ-जहाँ ऐन्द्रिय ज्ञान है - वहाँ-वहाँ क्रमवर्तीपना है और जहाँ-जहाँ क्रमवर्तीपना है वहाँ-वहाँ ऐन्द्रिय ज्ञान है)। यह ( क्रमवर्तीपने की) वृत्ति इस ऐन्द्रिय ज्ञान में ही होती है - दूसरे ( क्षायिक ) ज्ञान में नहीं होती। उस ऐन्द्रिय ज्ञान में ही यह क्रमवृत्ति है - दूसरी अक्रम वृत्ति (क्षायिक ज्ञानवाली वृत्ति) इसमें नहीं है। भावार्थ - इसमें अस्ति-नास्ति से यह बताया है कि क्षायिकज्ञान अक्रमवती ही है - क्रमवर्ती नहीं है।क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती ही है - अक्रमवर्ती नहीं है। नियमरूप सूत्र है। दोनों ओर से अविनाभाव का द्योतक है अर्थात् जहाँजहाँ क्षायिक ज्ञान है वहाँ-वहाँ अक्रमवृत्ति है जहाँ-जहाँ अक्रमवृत्ति है वहाँ-वहाँ क्षायिक ज्ञान है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ क्षायोपशमिक ज्ञान है वहाँ-वहाँ क्रमवृत्ति है और जहाँ-जहाँ क्रमवृत्ति है वहाँ-वहाँ क्षायोपशमिक ज्ञान है। यत्पुजनिमेकन नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तध्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः ॥ १६०७॥ अर्थ - और जोक्षायोपशमिक ज्ञान किसी एक विषय में (जेय में निरन्तरपने से वर्तता है वह ध्यान है। यहाँ भी वास्तव में क्रम है, अक्रम नहीं है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy