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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ४२५ (२८) ३. बादी - हट द्वारा द्वैत का आग्रह होय तो छुड़ावे और मिथ्यावाद मिटावे । { २९) ४. निमित्त - स्वरूप पाने में निमित्त जिनवाणी, गुरु तथा स्वधर्मी है और निजविचार है; निमित्त रूप से जो धर्मज्ञ है उसका हित कहे। (३०) ५. तपस्वी - परद्वैत की इच्छा मिटाकर निज प्रताप प्रगट करे। (३१) ६. विद्यावान् - विद्या द्वारा जिनमत का प्रभाव कहे, ज्ञान द्वारा स्वरूप का प्रभाव करे। (३२) ७. सिद्ध - स्वरूपानन्दी का वचनद्वारा हित करे, संघ की स्थिरता करे, जिस द्वारा स्वरूप की प्राप्ति होती है उसको सिद्ध कहते हैं। (३३) ८.कवि - कवि स्वरूप सम्बन्धी रचना रचे, परमार्थ को पावे, प्रभावना करे। इस आठ भेदों द्वारा जिनधर्म का - स्वरूप का प्रभाव बढ़े, ऐसा करे, ये अनुभवी के लक्षण हैं। अब छह भावना कहते हैं: - (खास) (३४) १. मूलभावना - सम्यक्त्व-स्वरूप अनुभव वह सकल निज धर्ममूल-शिवमूल है। जिनधर्मरूपी कल्पतरु का मूल सम्यक्त्व है ऐसा भावे (दसणमूलो धम्मो)। (३५) २. द्वारभावना - धर्म नगर में प्रवेश करने के लिये सम्यक्त्व द्वार है। (३६)३. प्रतिष्ठाभावना - व्रत - तप की, स्वरूप की प्रतिष्ठा सम्यक्त्व से है। (३७)४. निधानभावना - अनन्तसुख देने का निधान सम्यक्त्व है। (३८) ५. आधारभावना - सब गुणों का भाजन सम्यक्प हैं। ये छह भावनायें स्वरूप रस प्रगट करती हैं। (३९) ६. भाजनभावना - सब गुणों का भाजन सम्यक्त्व है। ये छह भावनाएं स्वरूप रस प्रगट करती हैं। अब सम्यक्त्व के पाँच भूषण लिखते हैं - (४०) १. कौशल्यता • परमात्मभक्ति, परपरिणाम और पापपरित्याग (रूप) स्वरूप, भावसंवर और शदभावपोषक क्रिया को कौशल्यता कहते हैं। (४१) २. तीर्थसेवा - अनुभवी वीतराग सत्पुरुषों के संग को तीर्थसेवा कहते हैं। (४२) ३. भक्ति - जिनसाधु और स्वधर्मी को आदरता द्वारा उसकी महिमा बधाना - उसको भक्ति कहते हैं। (४३) ४. स्थिरता - सम्यक्त्व भाव की दृढ़ता वह स्थिरता है। (४४) ५. प्रभावना - पूजा - प्रभाव करना वह प्रभावना है। ये भूषण, सम्यक्त्व के हैं। . सम्यक्त्व के पाँच लक्षण हैं। वे क्या-क्या हैं उनको कहते हैं - (४५) १. उपशम - राग-द्वेष को मिटाकर स्वरूप की भेंट करना वह उपशम है। (४६) २. संवेग - निजधर्म तथा जिनधर्म के प्रति गग-वह संवेग है। (४७)३.निर्वेद - वैराग्य भाव बह निर्वेद है। (४८) ४. अनुकम्पा - स्वदया-परदया वह अनुकम्पा है। (४९) ५. आस्तिक्य - स्वरूप को तथा जिनवचनों की प्रतीति वह आस्तिक्य है.ये लक्षण अनुभवी के हैं। अब छह जैनसार लिखते हैं - (५०) १. वंदना - परतीर्थ , परदेव और परचैत्य-उनकी वन्दना न करे। (५१) २. नमस्कार - उनकी पूजा या नमस्कार न करे ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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