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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक (२) अध्यात्म में पहली तीन पर्यायों को सामान्यतया मिथ्यादर्शन कहा जाता है और पिछली तीन पर्यायों को सामान्यतया सम्यग्दर्शन कहा जाता है। अथवायूँ भी कह सकते हैं कि सासादन और सम्यक मिथ्यात्व का अध्यात्म में निरूपण नहीं होता केवल मिथ्यात्व पर्याय का निरूपण होता है जो श्रद्धा गुण की विभाव या विपरीत पर्याय कही जाती है क्योंकि अध्यात्म का निरूपण ऐसे ढंग से होता है जो हम लोगों की पकड़ में आ सके । उसी प्रकार औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का मुख्यतया अध्यात्म में निरूपण नहीं होता केवल क्षायिक सम्यक्च का निगाहोता है।(प्रमाणी निमारमा,५२.५२ श्रद्धा गुण की स्वभाव अर्थात् सीधी पर्याय कही जाती है यह पर्याय वास्तविक सम्यग्दर्शन है)तत्त्वार्थ श्रद्धान या आत्म श्रद्धान इसका लक्षण है। इस पर्याय में निश्चय व्यवहार का कोई भेद नहीं है। गुणभेद करके केवल श्रद्धागण की अपेक्षा यदि जानना चाहते हो तो बस सम्यग्दर्शन के बारे में इतनी ही बात है (३) अब अभेद की दृष्टि से कुछ निरूपण करते हैं। सम्यग्दृष्टि आत्मा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय चौथे में ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। उस ज्ञान गुण का परिणमन उपयोग रूप भी है। यह उपयोग किसी समय स्वको जानता है तो किसी समय परको जानता है। जिस समय चौधे में ही उस सम्यग्दृष्टि आत्मा का ज्ञानोपयोग सब पर लेयों से हटकर केवल आत्मसंचेतन करने लगता है उस समय उसको स्वात्मानुभूति कहते हैं। उस समय बुद्धिपूर्वक विकल्प (राग) नहीं होता। आत्मा का उपयोग केवल स्व सन्मुख होकर अपने अतीन्द्रिय सुख का भोग करता है। इस ज्ञान की स्वात्मानुभूति को अखण्ड आत्मा होने के कारण सम्यग्दर्शन' भी कह देते हैं पर इतना विवेक रखना चाहिये कि यह मति भूतज्ञान की पर्याय है। श्रद्धा गुण की पर्याय नहीं है और इसके सम्यग्दर्शन कहना सम्यग्दर्शन का अनात्मभुत लक्षण है। आत्मभूत लक्षण नहीं है। क्योंकि इस स्वात्मानुभूति में बुद्धिपूर्वक विकल्प (राग) नहीं होता अतः इसको निश्चय सम्यग्दर्शन भी कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के साथ निश्चय विशेषण लगाने से क राग का निषेध हो जाता है और वह स्वात्मानुभूति दशा का द्योतक हो जाता है। श्रीसमयसारजी में इस पद्धति का निरूपण है। वह दशा चौथे में भी होती है, पाँचवें,छठे में भी होती है तथा सातवें से सिद्ध तक तो है ही स्वात्मानुभूति रूप दशा ( प्रमाण श्री आत्मावलोकन पन्ना १६५-१६६)। (४) जिस समय सम्यग्दृष्टि का ज्ञान स्वात्मानुभूति से छूटकर पर में जाता है और जीवादि नी पदार्थों को भेदरूप जानता है। उस समय उसके ज्ञान में बुद्धिपूर्वक राग भी आ जाता है। अतः उस समय बुद्धिपूर्वक ज्ञान की अपेक्षा तथा नौ तत्त्वों को भेद सहित और रागसहित जानने के कारण उस ज्ञान के परिणमन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसमें सभ्यग्दर्शन शब्द तो यह बताता है कि ज्ञान श्रद्धा गुण की सम्यक्त्व पर्याय को लिये हुए है और व्यवहार शब्द यह बतलाता है कि उस ज्ञान में बद्धिपूर्वक राग भी है। यह जो नौ पदार्थों के जानने रूप ज्ञान की पर्याय को व्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है वहाँ यह विवेक रहना चाहिये कि यह सम्यक्त्व का सहचर लक्षण है और वस्तुस्थिति उपर्युक्त अनुसार है यह भी सम्यक्व निरूपण की पद्धति है। तत्त्वार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन इसी पद्धति से कहा जाता है। (५) सम्यग्दृष्टि आत्मा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय चारित्र भी सम्यक्चारित्र हो जाता है। जिस समय चौथे से ही सम्यग्दृष्टि आत्मा उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति करता है उस समय इस गुण में अबुद्धिपूर्वक तो राग रहता है पर बुद्धिपूर्वक राग नहीं रहता। अतः स्वात्मानुभूति के समय जब सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को निश्चय सम्यक्त्व कहा जाता है तो उसमें इस गुण का वीतराग अंश भी समाविष्ट है। जिससमय स्वान्पानुभूति से छुटकर सम्यग्दृष्टि आत्मा पर में प्रवृत्त होता है जैसे पूजा, पाठ, शास्त्र, स्वाध्याय प्रवचन इत्यादि में। उस समय इस गुण में बुद्धिपूर्वक राग का परिणपन रहता है। इस बुद्धिपूर्वक विकल्प को व्यवहार सम्यक्त्व या व्यवहार ज्ञान कह देते हैं। पर कहते हैं उसी जीव में, जिसमें दर्शनमोह का उपशमादि होकर वास्तविक सम्यग्दर्शन साथ हो। मिथ्यादष्टि के श्रद्धान या ज्ञान या चारित्र को निश्चय या व्यवहार कोई भी सम्यक्त्व नहीं कहते। यह बात बराबर ध्यान में रहनी चाहिये। जहाँ कहीं मिथ्यादृष्टि के व्यवहार श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र कह भी दिया हो तो समझ लेना चाहिये कि वहाँ श्रद्धाभास, ज्ञानाभास तथा चारित्राभास को व्यवहार श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र का नाम दिया है और सम्यक्शब्द तो मिथ्यादृष्टि के लिये प्रयोग होता ही नहीं है। अब इस कथन को उपर्युक्त आगम प्रमाण से मिलाकर दिखाते हैं। श्रीसमयसारजी में उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है जो मति, भूत, ज्ञान की पर्याय है पर क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि को ही होती है अत: वह कथन निर्दोष है। श्री पंचास्तिकाय में सम्यग्दर्शन के सहभावी विकल्पात्मक ज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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