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श्रीद्रव्यसंग्रहजी में कहा है
जीवादिसद्दहणं सम्मत रूवमप्यणो तं
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तु ।
दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जहि ॥ ४१ ॥
अर्थ - जीवादि नौ तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और वह आत्मा का रूप है। जिसके होने पर निश्चय करके ज्ञान विपरीताभिनिवेश ( मिथ्या अभिप्राय ) से रहित सम्यक् हो जाता है। यह लक्षण ज्यों का त्यों ऊपर के श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय मिलता है। आत्मरूप लिखकर इसमें आरोपित लक्षणों का तथा राग का निषेध कर दिया है और श्रद्धा गुण की असली स्वभाव पर्याय रूप सम्यग्दर्शन का द्योतक है। उसके होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है यह उसका लाभ है। इसका निरूपण इस ग्रन्थ में सूत्र १९४३ से ११५३ तक है।
श्रीरलकरण्ड श्रावकाचारजी में कहा है
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढायोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ५ ॥
अर्थ- सच्चे देव, आगम और गुरुवों का तीन मूढ़ता रहित, आठ मद रहित तथा आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह लक्षण उपर्युक्त श्री नियमसार के लक्षण से लिया गया है। है तो यह असली सम्यग्दर्शन का लक्षण, पर सम्यग्दर्शन के अविनाभावी चारित्र गुण के बुद्धिपूर्वक विकल्प पर आरोप करके निरूपण किया है क्योंकि उन्हें चरणानुयोग का ग्रन्थ बनाना इष्ट था। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र ११७८ से १५८५ तक किया है।
श्री मोक्षशास्त्रजी में कहा है
"तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। है तो यह भी असली सम्यग्दर्शन का लक्षण पर अविनाभावी केवलज्ञान की पर्याय का सहचर करके निरूपण किया है। क्योंकि उन्होंने सात तत्त्वों के ज्ञान कराने के उद्देश्य से ग्रन्थ लिखा हैं। शेष सब ग्रन्थों के लक्षण उपर्युक्त सब लक्षणों के पेट में ही आ जाते हैं तथा उपर्युक्त के समझ लेने से पाठक अन्य पुस्तकों के लक्षणों को स्वयं समझ जाता है।
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निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
यह विषय समझना परमावश्यक है और हम उसपर कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं। यह विषय वास्तविक रूप में उसी को समझ आयेगा जिसके द्रव्य, गुण, पर्याय का अच्छा ज्ञान होगा। इस विषय में जितनी भी भूल जगत्
चलती है वह सब द्रव्य, गुण, पर्याय की अज्ञानता के कारण चलती है। अस्तु ( १ ) आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य इत्यादि अनन्त गुणों की तरह एक सम्यक्त्व नाम का गुण है। इसको श्रद्धा गुण भी कहते हैं। इसकी केवल छः पर्यायें होती हैं (१) मिध्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र अर्थात् सम्यक् मिथ्यात्व ( ४ ) औपशमिक सम्यग्दर्शन (५) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन (६) क्षायिक सम्यग्दर्शन। सातवीं कोई पर्याय इस गुण में नहीं होती । व्यवहार सम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्दर्शन नाम का कोई पर्याय भेद इस गुण में है ही नहीं। यह सिद्धान्त पद्धति है । केवलज्ञान के आधार पर इसका निरूपण होता है। इस पद्धति में एक गुण की पर्याय का आरोप दूसरे गुण पर नहीं होता किन्तु प्रत्येक गुणका भिन्न-भिन्न विचार किया जाता है। इस पद्धति में क्षायिक सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन भी कहते हैं और औपशमिक तथा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। इस प्रकार सराग और वीतराग सम्यग्दर्शन दोनों श्रद्धा गुण की वास्तविक पर्याय बन जाती हैं। यह पद्धति श्रीराजवार्तिकजी में है तथा श्री अमितगति श्रावकाचार में यह श्लोक है
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वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा ।
विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरं द्वयम् ॥ ६५ ॥
अर्थ - वीतराग अर सराग ऐसें सम्यक्त्वदीय प्रकार का है। तथा क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और क्षयोपशम, उपशम ए दोष सम्यक्त्व सराग हैं।