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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ४११ श्रीनियमसारजी में कहा है अत्तागमतभ्राणं सद्दहणादो हवेइ सम्मतं ॥५॥ विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत ॥ ५१॥ चलमलिणमगावत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मतं ।। ५२ ॥ अर्थ - आप्त, और तत्तों को होगा है। विपरीत अभिनिवेश ( अभिप्राय-आग्रह) रहित श्रद्धान वह ही सम्यक्त्व है ।। ५१।। चलता, मलिनता और अगाढता रहित श्रद्धान वह ही सन्यक्त्व है॥५२॥ इसमें व्यवहार सम्यग्दर्शन रूप स्वभाव पर्याय का वर्णन इस ग्रन्थ में सूत्र ११७८ से ११९१ तक १४ सूत्रों में है। श्री पंचास्तिकाय पन्ना १६९ श्री जयसेन टीका में कहा है - गावं जिणपण्णते सहमाणस्य भावदो भावे । पुरिसस्साभिणिबोधे दसणसद्दो हवदिजुत्ते ॥१॥ एवं जिनप्रज्ञप्तान भइधतः भावतः भावान् । पुरुषस्य आभिनिबोधे दर्शनशब्दः भवति युक्तः ॥ अर्थ - इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गये पदार्थों को भावपूर्वक श्रद्धान करने वाले पुरुष के मति ( श्रुत) ज्ञान में दर्शनशब्द प्रयुक्त होता है। इस लक्षण में निरूपण तो श्रद्धा गुण की असली सम्यग्दर्शन पर्याय का है किन्तु वह नीची भूमि वाले सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को सहचर करके निरूपण किया गया है क्योंकि लेखक को आगे सम्यग्दृष्टि के ज्ञान के ज्ञेयभूत नौ पदार्थों का वर्णन करना था और उनकी भूमिका रूप यह सूत्र रचा गया है। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र नं. ११७८ से ११९१ तक १४ सूत्रों में किया है। श्रीप्रवचनसारजी सूत्र २४२ की टीका में कहा है। "ज्ञेयज्ञातृतत्वलथाप्रतीतिलक्षणेल सम्यग्दर्शनपर्यायेण" अर्थ - ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातत्त्व की तथाप्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शन पर्याय है ...। यहाँ सम्यग्दर्शन रूप असली पर्याय का निरूपण है। स्व परश्रद्धान लक्षण से उसे निरूपण किया है। यह लक्षण हमारे नायक ने सूत्र ११७८ से ११९१ में निरूपण किया है। श्रीदर्शनप्राभत में कहा है जीवादी सहहणं सम्मतं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयटो अप्पाणं हवाइ सम्मत ॥ २० ॥ अर्थ - जीव आदि कहे जे पदार्थ तिनिका श्रद्धान सो तौ व्यवहार तैं सम्यक्त्व जिन भगवान नैं कह्मा है, बहुरि निश्चयतें अपना आत्मा ही का श्रद्धान सो सम्यक्त्व है। यहाँ व्यवहार सम्यक्त्व तो विकल्प रूप है जो निश्चय सम्यग्दर्शन का अविनाभावी चारित गुण का विकल्प है। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र ११७८ से १९९१ तक किया है। नीचे की पंक्ति में सम्यक्त्व का स्वात्मानुभूति लक्षण है। जिसको निश्चय सम्यक्त्व कहा है इसका निरूपण यहाँ सूत्र ११५५ से १९७७ तक २३ सूत्रों में किया है। श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय जी में कहा है जीवाजीवादीनां तत्वार्थाना सदैव कर्तव्यम् ।। श्रद्धान विपरीताभिनिवेशविविक्त्तमात्मरूपतत ॥ २२॥ अर्थ - जीव-अजीव आदि नौ तत्वों का श्रद्धान सदा करना चाहिये। वह श्रद्धान विपरीत अभिप्राय से रहित है और वह आत्मरूप' है। आत्मरूप राग को नहीं कहते। शुद्धभाव को ही कहते हैं। यह लक्षण श्रद्धा गुण की असली सम्यग्दर्शन पर्याय का है। आरोपित नहीं है। जिसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र १९४३ से १९५३ तक ११ सूत्रों में किया है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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