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श्रद्धानादिगुणाश्चैले बाह्योल्लेखच्छ्लादिह ।
अर्थात्सद्दर्शनस्यैकं लक्षणं ज्ञानचेतना || १५८८ ॥
सूत्रार्थ - ये श्रद्धान- आदिक गुण बाह्य उल्लेख सहचर के छल से इस सम्यग्दर्शन के लक्षण कहे गये हैं किन्तु वास्तव में तो सम्यग्दर्शन का एक लक्षण ज्ञान चेतना ही है (ज्ञान चेतना कहो या आत्मानुभूति कहो, एक ही बात है ।
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - वास्तव में तो आत्मभूत सम्यग्दर्शन वही है जो श्रद्धा गुण को पर्याय है जिसका निरूपण सर्वप्रथम सूत्र ११४३ से ११५३ तक किया है। दूसरे नम्बर पर सम्यग्दर्शन का लक्षण शुद्ध स्वात्मानुभूति अर्थात् ज्ञान चेतना है। यह लक्षण सम्यग्दर्शन का अविनाभूत है और चौथे से सिद्ध तक सब जीवों में पाया ही जाता है। अतः अव्याप्ति दोष नहीं है। किसी भी मिथ्यादृष्टि में चाहे वह ग्यारह अंग का पाठी या महाव्रती मुनि ही क्यों न हो, नहीं पाया जाता अतः अतिव्याप्ति दोष भी नहीं है। बिना आत्मानुभव कैसा सम्यग्दृष्टि, अतः अंसभव दोष भी नहीं है। मिथ्यादृष्टि का लक्षण जो कर्म चेतना और कर्मफल चेतना है उसका सभ्यग्दृष्टि कर्ता-भोक्ता न होने से वह दोष भी इस लक्षण में नहीं आता है और अन्य सब गुण इसके पेट में आ जाने से यही मुख्यतया सम्यग्दृष्टि का प्रधान लक्षण है जिसका विवेचन ग्रन्थकार ने सूत्र ११५५ से ( १९७७ एन्म किया है तथा चौथी में भी बहुत किया है। श्रीसमयसार की रचना तो सारी की सारी इसी लक्षण के आधार पर है। इस शास्त्र में तो सम्यग्दर्शन का केवल यही एक लक्षण स्वीकार किया गया है। अब गुरुदेव एक ओर मार्मिक और रहस्य की बात समझाते हैं कि सूत्र ११७८ से १५८५ तक जो सम्यक्त्व के लक्षण कहे गये हैं वे वास्तव में चारित्र गुण के विकल्प हैं, विकार हैं, पुण्य भाव हैं, आस्ववतत्त्व हैं अथवा (विकल्पात्मक ज्ञान की दशा होने से ) उन्हें ज्ञान की पर्याय भी कह देते हैं। पर ये सहचर चिन्ह हैं। सम्यग्दृष्टियों में नीचे की भूमिकाओं में पाये जाते हैं ऊपर नहीं पाये जाते तथा आभास रूप से मिथ्यादृष्टियों में भी पाये जाते हैं। अतः ये वास्तविक लक्षण नहीं हैं । तथा इन लक्षणों में से किसी सम्यग्दृष्टि में किसी बात की आधिक्यता रहती है; किसी में किसी दूसरी बात की आधिक्यता रहती
। कोई-कोई बात किसी-किसी सम्यग्दृष्टि में अत्यन्त गौण भी रहती है तथा कभी किसी की मुख्यता हो जाती है, कभी किसी की। अतः ये परीक्षा के योग्य लक्षण नहीं हैं, पर आगम तथा लोकव्यवहार में लक्षण रूप से प्रसिद्ध हैं अतः हमने निरूपण कर दिये हैं तथा इनके निरूपण से एक यह भी लाभ है कि सम्यग्दृष्टि का अन्तरंग, बहिरंग सब झलक जाता है। उसका शुद्धभाव कैसा है, ज्ञान कैसा है, चारित्र कैसा है, विकल्प कैसा है, संयोग कैसा है, कैसे संयोगों में वह रहना चाहता है, किन कार्यों से उसे घृणा है इसका स्पष्ट दिग्दर्शन हो जाता है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य की बुद्धि का कमाल है। हम तो उन पर मुग्ध हैं। जिस विषय को भी उठाया है। सर्वागदर्शन करा दिया है। क्या सम्यग्दर्शन का सांगोपांग निरूपण किया है। द्रव्यगुण पर्याय से स्पष्ट समझ में आ जाता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव के गणधर का काम लिया है। उनके अन्तरंग पेट को जानने का इन्हें गजब का अभ्यास था। क्या सम्यग्दर्शन का सर्वांग निरूपण आत्मभूत, अनात्मभूत, सहचर इत्यादिक रूप से किया है। बलिहारी है, उस महात्मा को कोटिशः नमस्कार द्वारा ही उनके उपकार को प्रगट करते हैं और उनके उपकार को किस प्रकार प्रगट करें कोई साधन नहीं है। मन का उल्लास भाव तो बहुत है जय हो श्रीअमृतचन्द्र गुरुदेव की ।
परिशिष्ट
सम्यक्त्व के लक्षणों का तुलनात्मक अध्ययन श्रीसमयसारजी में कहा है
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्यपावं च । आसवसंवरणिञ्जरबंधो मोक्यो य सम्मतं ॥ १३ ॥
अर्ध-भूतार्थ नय से जाने हुए जीव, अजीब और पुण्य पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ तत्त्व सम्यक्त्व है। भाव यह है कि नौ तत्त्व में अन्वय रूप से पाये जाने वाले सामान्य का अनुभव सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन का स्वात्मानुभूति रूप अनात्मभूत लक्षण है; जिसका हमारे नायक श्री पंचाध्यायीकार ने सूत्र नं. ११५५ से १९७७ तक २३ सूत्रों में विवेचन किया है !