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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
श्री समयसारजी में कहा है
विज्ञ्जरहमारूदो मणोरहपहेसु भमई जो चेदा ।
सो जिणणाणपहावी सम्भादिट्ठी मुगेयो || २३६ ॥
सूत्रार्थ जो चेतयिता विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ हुआ ( चढ़ा हुआ ) मनरूपी रथ के पथ में (ज्ञानरूपी रथ के चलने के मार्ग में ) भ्रमण करता है; पर जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयता के कारण ज्ञान की समस्त शक्ति को प्रगट करने विकसित करने - फैलाने के द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है; इसलिए वह प्रभावना करने वाला है।
श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा
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आत्मा प्रभावनीयों रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ ३० ॥
सूत्रार्थ - निरन्तर ही रत्नत्रय के तेज से अपना आत्मा प्रभावना युक्त करना चाहिये अर्थात् निरन्तर अपने रत्नत्रय में वृद्धि करना निश्चय से स्वप्रभावना अङ्ग है। दान, तपश्चरण, जिनपूजा और ज्ञान के अतिशय से जिनधर्म प्रभावनायुक्त करना चाहिये अर्थात् धनवान हो तो दान, जिनपूजा, प्रतिष्ठा आदि कार्यों से, तपस्वी हो तो तप की अधिकता से, ज्ञानी हो तो प्रवचन, शास्त्र निर्माण, पठन-पाठन से जिनधर्म बढ़ाना यह व्यवहार से पर प्रभावना है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य
यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १८ ॥
सूत्रार्थं - अज्ञान रूपी अंधकार के फैलाव को दूर करके यथायोग्य जिनशासन के महात्म्य को प्रकाश करना प्रभावना अंग है।
श्री अमितगतिश्रावकाचार में कहा है।
निरस्तटोषे जिननाथशासने, प्रभावनां यो विदधाति शक्तितः ।
तपोदयाज्ञानमहोत्सवादिभिः, प्रभावकोऽसौ गदितः सुदर्शनः ॥ ८० ॥
सूत्रार्थ - दूरि भये हैं रागादिक दोष जाके ऐसा जो जिननाथ का शासन तावियँ जो शक्तिसारू तप, दया, ज्ञान महोत्सव इत्यादिकनि करि प्रभावनाकों करे हैं उद्योत करें है सो यहु सम्यग्दृष्टि प्रभावना करने वाला कह्या है। सर्व जीवमानें कि जिनमत धन्य है तामे ऐसे तपश्चरणादि पाइए है, ऐसे तपश्चरणादि करि जिनमत का उद्योत करणा तथा निश्चयतैं आत्माकूं रत्नत्रय आभूषित करना सो प्रभावना अंग जानना ।
उपसंहार १५८६-८७-८८-३ खास
इत्यादयो गुणाश्चान्ये विद्यन्ते सद्गात्मनः ।
अलं चिन्तनया तेषामुच्यते यद्विवक्षितम् ॥१५८६ ॥
सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि आत्मा के ये श्रद्धा आदि गुण हैं जो सूत्र ११७८ से १५८५ तक निरूपण किये गये हैं तथा और भी अनेक गुण होते हैं। उनके विचार से बस (क्योंकि वे विकल्पात्मक हैं ) जो विवक्षित अर्थात् परम आवश्यक बात है, वह बात अब कही जाती है।
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प्रकृतं तद्यथास्ति स्वं स्वरूपं चेतनात्मनः ।
सा त्रिधात्राप्युपादेया सदृदृष्टेर्ज्ञानचेतना ॥ १५८७ ॥
वह परम आवश्यक बात इस प्रकार है कि चेतना आत्मा का निज स्वरूप है। वह चेतना तीन प्रकार
सूत्रार्थ
की है तो भी यहाँ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान चेतना उपादेय है अर्थात् सम्यग्दृष्टि के ज्ञान चेतना समझनी चाहिये, अन्य दो नहीं और वह ज्ञान चेतना ही सम्यग्दर्शन का वास्तविक लक्षण है क्योंकि वह राग रहित वस्तु है।