SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी श्रीदर्शन पाहुड़ में सम्यक्त्व के अविनाभावी चारित्रगुण के बुद्धिपूर्वक विकल्प सहित ज्ञान के परिणमन को व्यवहार सम्यक्त्व कहा है और उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति को निश्चय सम्यक्त्व कहा है। श्रीप्रवचनसार में सम्यक्त्व के अविनाभावी सामान्यज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है चाहे वह ज्ञान लब्धिरूप हो या उपयोग रूप हो। श्री पुरुषार्थसिद्धि तथा श्री द्रव्यसंग्रह में श्रद्धागुण की सीधी सम्यग्दर्शन पर्याय का निरूपण है उसमें निश्चय व्यवहार का भेद नहीं है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यक्त्व की अविनाभावी चारित्र गुण के देव, शास्त्र, गुरु के विकल्पात्मक परिणमन को सम्यग्दर्शन कहा है। श्री मोक्षशास्त्र में सम्यक्त्व के अविनाभावी विकल्पात्मक ज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है श्री सर्वार्थसिद्धि में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा सम्यक्त्व का लक्षण मिलता है यह सम्यक्त्व के अविनाभावी चारित्र गुण का विकल्पात्मक परिणमन है। श्री आत्मानुशासन में जो सम्यक्त्व के मूल सम्यक्त्व आदि दस भेद किये हैं वे अनेक निमित्तों की अपेक्षा सम्यक्त्व से अविनाभावी हैं। श्रीप्रवचनसार मुत्र २४२ की टीका में एक और ही प्रकार का व्यवहार निश्चय मिलता है। वहाँ अप्रमत्त दशा की बात है। अप्रभत्त दशा में रत्नत्रय में बुद्धिपूर्वक विकल्प का तो अभाव हो जाता है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का भिन्न-भिन्न वेदन न होकर मानकवत् एकाग्र वेदन होता है सो आचार्य कहते हैं कि गुण भेद करके भिन्न-भिन्न गुण की पर्याय से यदि मोक्षमार्ग कहो तो वही व्यवहार मोक्षमार्ग है और यदि गुण भेद न करके अभेद से कहो तो वही निश्चय मोक्षमार्ग है। यहाँ राग को व्यवहार और वीतरागता को निश्चय नहीं किन्तु पर्याय भेद को व्यवहार और पर्याय अभेद को निश्चय कहा है। श्री द्रव्यसंग्रह में बहुत सुन्दर विवेचन है। उन्होंने सम्यग्दर्शन जो श्रद्धा गुण की असली पर्याय है उसे तो निश्चय सम्यग्दर्शन लिखा है। ज्ञान की पर्याय स्वपर के जानने रूप है। उसमें निश्चय व्यवहार का भेद नहीं किया। चारित्र गुण का परिणमन क्योंकि वीतरागरूप भी होता है और सरागरूप भी। अतः पर्याय के टुकड़े करके जितने अंश में वह चारित्रगुण शुभ विकल्प रूप परिणमन कर रहा है उतने अंश में तो उसको व्यवहार चारित्र कहा है। ज्ञानी का व्यवहार है। क्योंकि सम्यक् शब्द शुद्ध भाव के लिये ही Reserve है यह सम्यक् विशेषण केवल राग को नहीं लगाया जाता चाहे वह राम ज्ञानी का हो या अज्ञानी का और जितने अंश में चारित्र वीतराग रूप परिणमन कर रहा है उसको निश्चय सम्यक्चारित्र कहा है। इन्होंने पूरे द्रव्य, गुण, पर्याय के हिसाब से लिखा है सब झगड़ा ही खत्म कर दिया है। यह विवेचन शुद्ध अर्थात् भिन्न-भिन्न गुण भेद की पर्याय के अनुसार है। आरोप का काम नहीं है। श्री नियमसार सूत्र ५ तथा ५१-५२ की प्रथम पंक्तियों में व्यवहार सम्यक्त्व का निरूपण है। सूत्र ५१-५२ की अन्तिम पंक्तियों में सम्यग्ज्ञान का तथा ५४-५५ में चारित्र की प्रथम पंक्ति में निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। सूत्र ५६ से ७६ तक ज्ञानी के विकल्परूप शुभ व्यवहार चारित्र का विवेचन है और ७७ से १५८ तक वीतराग अंश रूप निश्चय चारित्र का वर्णन है। श्रीद्रव्यसंग्रह में सूत्र ४१ में शुद्ध सम्यग्दर्शन का, सूत्र ४२ में शुद्ध सम्यग्ज्ञान का सूत्र ४५ में व्यवहार चारित्र का इसमें चारित्र का सम्यक् विशेषण नहीं है यह खास देखने की बात है यद्यपि ज्ञानी का विकल्प है। सूत्र ४६ में वीतराग चारित्र का, अज्ञानी को व्यवहार भी नहीं कहा ) हमें यह पद्धति बहुत पसन्द आई है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में तीनों शुद्धभाव रूप लिये हैं। राग को अंगीकार नहीं किया बल्कि राग का तो निषेध किया है। श्री तत्त्वार्थसार में ज्ञानी मुनि की विकल्पात्मक प्रवृत्ति को व्यवहार संज्ञा दी है और निर्विकल्प मुनि को निश्चय संज्ञा दी है। श्री पंचास्तिकाय में भी यही बात है। श्रीसमयसार में शुद्ध अंश को निश्चय रत्नत्रय और राग अंग को व्यवहार कहा है पर उस राग के साथ सम्यक् विशेषण नहीं है। पं. टोडरमलजी अन्तिम व अध्याय में शुद्ध असली सम्यक्त्व है उसको तो निश्चय सम्यक्त्व कहा है और जितने अंश में राम है अर्थात् ज्ञान के साथ उस जाति का बुद्धिपूर्वक विकल्प है उसको व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। इसप्रकार दोनों प्रकार के सम्यक्त्व को एक समय में कहा है तथा उससे आगे वे लिखते हैं कि सम्यग्दृष्टि के राग पर ही व्यवहार सम्यक्त्व का आरोप आता है। मिध्यादृष्टि के राग पर नहीं अर्थात् मिथ्यादृष्टि के राग को व्यवहार सम्यक्त्व नहीं कहते। सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले जो विकल्पात्मक नौ पदार्थ की श्रद्धा है । वह मिथ्या श्रद्धा है उसको व्यवहार सम्यक्त्व नहीं कहते। आगे चलकर लिखते हैं कि जिस जीव को नियम से सम्यक्त्व होने वाला है और वह करणलब्धि में स्थित है उसकी विकल्पात्मक श्रद्धा को तो व्यवहार सम्यक्त्व कह सकते हैं क्योंकि वहाँ नियम से निश्चय सम्यक्त्व उत्पन्न होने वाला है । श्रीजयसेन आचार्य तथा श्रीवहादेव सूरि आदि जिन आचार्यों ने एक समय में व्यवहार निश्चय रूप दोनों प्रकार का मोक्षमार्ग माना है उन्होंने तो शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्र पर्यायों को तो निश्चय कहा है और राग को व्यवहार कहा है और जिन्होंने भिन्न-भिन्न समय की मुख्यता से कहा है उन्होंने सम्यग्दृष्टि मुनि की सविकल्प अवस्था को व्यवहार ४२२
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy