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प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक
गुणपर्ययवद्दव्यं लक्षणमेकं यदुक्तमिह पूर्वम् ।
वाक्यान्तरोपदेशादधुना तद्वाध्यते त्विति चेत् ॥ ९७ ॥
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अर्थ - शंका पहले द्रव्य का लक्षण "गुणपर्ययवद्द्रव्यं" यह कहा गया है और अब वाक्यांतर के द्वारा उत्पाद, व्यय, श्रव्य युक्त सत् द्रव्य का लक्षण बतलाया जाता है। इसलिये इस लक्षण में इस लक्षण से बाधा आती है।
समाधान ९८ से १०२ तक
तर यतः
कोऽर्थो वाक्ययोर्द्धयोरेव । अन्यतरं स्यादितिचेन्न मिथोऽभिव्यंजकत्वाद्वा ॥ १८ ॥
अर्थ- दोनों लक्षणों में विरोध बतलाना ठीक नहीं है क्योंकि अच्छी तरह विचार करने से दोनों वाक्यों का एक ही अर्थ प्रतीत होता है। फिर भी शंकाकार कहता है कि जब दोनों लक्षणों का एक ही अर्थ है तो फिर दोनों के कहने की क्या आवश्यकता है। दोनों में से कोई सा एक कह दिया जाय । उत्तर देते हैं कि नहीं। दोनों ही एक-दूसरे के अभिव्यंजक (प्रकाशक ) हैं ।
तद्दर्शनं यथा किल नित्यत्त्वस्य च गुणस्य व्याप्तिः स्यात् ।
गुणवद्द्रव्यं च स्यादित्युक्ते धौव्यवत्पुनः सिद्धम् ॥ ९९ ॥
अर्थ- दोनों लक्षण एक-दूसरे के प्रकाशक हैं उसका खुलासा इस प्रकार है कि नित्यता और गुण की व्याप्ति है। ( अर्थात् गुण कहने से नित्यपने का बोध होता है) इसलिये "गुणवान् द्रव्य है" ऐसा कहने से धौव्यवान् द्रव्य सिद्ध होता है।
अपि च गुणाः संलक्ष्यास्तेषामिह लक्षणं भवेत् ध्रौव्यम् 1
तस्मालक्ष्यं साध्यं लक्षणमिह साधनं प्रसिद्धत्वात् ॥ १०० ॥
अर्थ- दूसरे शब्दों में यह कहा जाता है कि गुण लक्ष्य हैं। धौव्य उनका लक्षण है। इसलिये यहाँ पर लक्ष्य को साध्य बनाया जाता है और लक्षण को साधन बनाया जाता है।
भावार्थ- गुणों का धौव्य लक्षण करने से गुणों में नित्यता भली-भांति सिद्ध हो जाती है।
पर्यायाणामिह किल भङ्गोत्पादद्वयस्य वा व्याप्तिः ।
इत्युक्ते पर्ययवद्रव्यं सृष्टिष्ययात्मकं वा स्यात् ॥ १०१ ॥
अर्थ- पर्यायों की नियम से उत्पाद और व्यय के साथ व्याप्ति है । ( अर्थात् पर्याय के कहने से उत्पत्ति और विनाश का बोध होता है ) । इसलिये "पर्यायवाला द्रव्य है" ऐसा कहने से उत्पाद व्यय वाला द्रव्य सिद्ध होता है।
भावार्थ - वस्तु में होनेवाले अवस्था भेद को उत्पाद व्यय कहते हैं । अवस्था नाम पर्याय का है। पर्यायों से अनित्यता सिद्ध करने के लिये ही द्रव्य को उत्पाद व्ययवान् कहा है।
लक्ष्यस्थानीया इति पर्यायाः स्युः
स्वभाववन्तश्च ।
तेषां लक्षणमिव वा स्वभावं इव वा पुनर्व्ययोत्पादम् ॥ १०२
अर्थ- पर्यायें लक्ष्य के स्थानापन्न हैं। इसलिये वे एक प्रकार से स्वभाववान भी हैं। उन पर्यायों के लक्षण की तरह अथवा स्वभाव की तरह उत्पाद व्यय हैं।
भावार्थ- गुण और पर्याय ये स्वभाववान् या लक्ष्यस्थानीय हैं तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये स्वभाव या लक्षण स्थानीय हैं। इस हिसाब से गुणों का स्वभाव या लक्षण धौव्य तथा पर्यायों का स्वभाव या लक्षण उत्पाद और व्यय प्राप्त होता है। जिसका लक्षण किया जाये उसे लक्ष्य कहते हैं और जिसके द्वारा वस्तु की पहचान की जाय उसे लक्षण कहते हैं। गुणों की मुख्य पहचान उनका सदा बने रहना है और पर्यायों की मुख्य पहचान उनका उत्पन्न होते रहना और विनष्ट होते रहना है। इसी से यहाँ पर गुण और पर्यायों का लक्ष्य और उत्पादिक को उनका लक्षण कहा है। ये उत्पादिक गुण और पर्यायों के स्वभाव इसलिये कहलाते हैं क्योंकि ये उनके आत्मभूत धर्म हैं।