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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
परिणामी मानना चाहिये। फिर किसी परिणाम से वस्तु उत्पन्न होगी, किसी से नष्ट भी होगी और किसी से स्थिर भी रहेगी। इसी बात को आगे स्पष्ट करते हैं।
दव्यं ततः कथंचित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेल ।
व्येति तदन्येन पुनर्नेतद्वितयं हि वस्तुतया ॥ ११॥ ___ अर्थ-( उपर्युक्त कथन से द्रव्य परिणामी सिद्ध हो चुका) इसलिये वह किसी अवस्था से कथंचित् उत्पन्न भी होता है। किसी दूसरी अवस्था से कथंचित् नष्ट भी होता है। वस्तु स्थिति से उत्पत्ति और नाश दोनों ही वस्तुपने नहीं होते हैं।
इस रूपेण वा प्रायसीति विण्डरूपेण ।
व्येति तथा युगपत्स्यादेतद्वितयं न मृत्तिकात्वेन ॥ ९२॥ अर्थ-जैसे लोक में मिट्टी एक ही समय में घटरूप से उत्पन्न होती है, पिण्ड रूप से नष्ट होती है तथा मिट्टीपने से ये दोनों ही अवस्थायें नहीं होती।
शंका
ननु ते विकल्पमात्रमिह यदकिधिकरं तदेवेति ।
एतावतापिन गुणो हानिर्वा तद्विना यतस्त्विति चेत् ॥ ९ ॥ अर्थ-शंकाकार कहता है कि यह सब तुम्हारी कल्पना मात्र है और वह व्यर्थ है। उत्पादादि त्रय के मानने से न । तो कोई गुण ही हैं और इसके न मानने से कोई हानि भी नहीं दीखती ?
__समाधान ९४ से ९६ तक तन्न यतो हि गुण: स्यादुत्पादादित्रयात्मके द्रव्ये ।
तन्निन्हवे च न गुणः सर्वद्रव्यादिशून्यदोषत्वात् ॥४॥ अर्थ-शंकाकार की उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि उत्पादादि त्रय स्वरूप वस्तु को मानने से ही लाभ है। इसके नमानने से कोई लाभ नहीं है। क्योंकि उत्पादादि के नहीं मानने पर सब द्रव्यादि का अभाव होकर सर्व शून्य दोष प्राप्त होता है।
परिणामाभातादपि द्रव्यस्य स्यादनन्यथावृत्तिः ।
तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणमथापि कार्य वा ॥२५॥ अर्थ-परिणाम के न मानने से द्रव्य सदा एक सा ही रहेगा। उस अवस्था में परलोक, कारण और कार्य आदि कुछ भी नहीं बनेगा। भावार्थ के लिये आगे देखिये श्लोक ४२२ से ४२८ तक । वहाँ यह विषय विशद रूप से स्पष्ट किया है।
परिणामिनोऽप्यभावात् क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु ।
तन्न यतोऽभिज्ञानान्नित्यस्याप्यात्मनः प्रतीतत्वात् ॥१६॥ अर्थ-यदि परिणामी को न माना जाय तो बस्तु क्षणिक-केवल परिणाम मात्र ठहर जायगी और यह बात बनती नहीं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की नित्यरूप से भी प्रतीति होती है ( स्पष्टता के लिये आगे देखिये श्लोक ४२९ से ४३२ तक)।
भावार्थ-बिना नित्यता स्वीकार किये आत्मा में "यह वही जीव है" ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये दोनों श्लोकों का फलितार्थ यह निकला कि वस्तु अपनी वस्तुता को कभी नहीं छोड़ती इसलिये तो वह नित्य है और वह सदा नई-नई अवस्थाओं को बदलती रहती है इसलिये अनित्य भी है। वह न तो सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है जैसा कि सांख्य बौद्ध मानते हैं।