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प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक
२३
उत्पादस्थितिभंगैर्युक्तं सद्द्द्रव्यलक्षणं हि यथा ।
एतैरेव समस्तै: पृक्तं सिद्धेत्समं न तु व्यस्तैः ॥ ८६ ॥
अर्थ - वह वाक्यान्तर इस प्रकार है-उत्पाद, स्थिति, भंग इन तीनों से युक्त सत् ही द्रव्य का लक्षण है। इतना विशेष है कि वह सत् इन तीनों से युगपत् युक्त मानने पर ही सिद्ध होता है। पृथक् पृथक् इनसे युक्त मानने पर नहीं सिद्ध होता अर्थात् भिन्न उत्पाद, भिन्न व्यय, भिन्न धौव्य-भिन्न-भिन्न प्रदेश मानकर फिर इकट्ठा करने पर सिद्ध नहीं होता। अयमर्थः प्रकृतार्थो
धौव्योत्पादव्ययास्त्रयश्चांशाः ।
नाम्ना सदिति गुणः स्यादेकोऽनेके ते एकशः प्रोक्ताः ॥ ८७ ॥
अर्थ - प्रकरणानुसार सारांश यह है कि धौव्य, उत्पाद और व्यय ये तीनों अंश नाम से सत् गुण रूप हैं इसलिए एक हैं और पृथक् पृथक् कहे जाने पर वे अनेक हैं।
भावार्थ- द्रव्य में एक अस्तित्व नामक गुण है। उसी को सत्ता भी कहते हैं। वह सत् गुण ही उत्पाद-व्यय- श्रीव्यात्मक है। इसलिये प्रत्येक की अपेक्षा से तीनों जुदे जुदे हैं परन्तु समुदाय की अपेक्षा से केवल सत् गुण स्वरूप हैं। लक्ष्यस्य लक्षणस्य च भेदविवक्षाश्रयात्सदेव गुणः । द्रव्यार्थादेशादिह तदेव सदिति स्वयं
द्रव्यम् ॥ ८८ ॥
अर्थ- प्रकृत में लक्ष्य और लक्षण की भेद विवक्षा के आश्रय से तो सत् गुण ही है परन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टि से वही सत् स्वयं द्रव्य स्वरूप है।
भावार्थ- वस्तु में अनन्त गुण हैं। उन गुणों में से प्रत्येक को चालनी न्याय से यदि द्रव्य का लक्षण माना जावे तो उस अवस्था में द्रव्य लक्ष्य ठहरेगा और गुण उसका लक्षण ठहरेगा। लक्ष्य लक्षण की अपेक्षा से ही गुण गुणी में कथंचित् भेद है। इसी दृष्टि से सत्ता और द्रव्य में कथंचित् भेंद है।
परन्तु भेद विकल्प बुद्धि को हटाकर केवल द्रव्यार्थिक दृष्टि से सत्ता और द्रव्य दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। जो द्रव्य है सो ही सत्ता है। इसका खुलासा इस प्रकार है कि सम्पूर्ण गुणों में अभिन्नता होने से किसी एक गुण के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण हो जाता है। इस कथन से सत्ता कहने से भी द्रव्य का ही बोध होता है और द्रव्यत्व कहने से भी द्रव्य का ही बोध होता है। वस्तुत्व कहने से भी द्रव्य ( वस्तु ) का ही बोध होता है। नय दृष्टि से सत्ता द्रव्यत्व और वस्तुत्व के कहने से केवल उन्हीं गुणों का ग्रहण होता है। अभेद दृष्टि रखने से उत्पाद, व्यय, श्रौव्य ये तीनों अवस्थायें द्रव्य की कहलाती हैं। इसलिये द्रव्य ही उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक हैं।
वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि ।
तस्मादुत्यादस्थितिभंगमयं तत् सदेतदिह नियमात् ॥ ८९ ॥
अर्थ - जिस प्रकार वस्तु अनादि निधन स्वतः सिद्ध अविनाशी है उसी प्रकार परिणामी भी है। इसलिये प्रकृत में वह सत् नियम से उत्पाद ध्रौव्य और व्यय रूप है यह सिद्ध हुआ ।
भावार्थ- वस्तु स्थायी रहती हुई स्वभाव या विभाव रूप से स्वयं परिणमन करती है। निमित्त से नहीं।
नहि पुनरुत्पाटस्थितिभंगमयं तद्विनापि परिणामात् ।
असतो जन्मत्वादिह सतो विनाशस्य दुर्निवारत्वात् ॥ e ॥
अर्थ-यदि बिना परिणाम के ही वस्तु को उत्पाद, व्यय, श्रौव्य स्वरूप माना जाय तो असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश अवश्यंभावी होगा।
भावार्थ- वस्तु को परिणमनशील मानकर यदि उत्पादादि त्रय माने जावें तब तो वस्तु में नित्यता कायम रहती है। यदि उसे परिणमनशील न मानकर उसके ही उत्पादादि माना जावे तो वस्तु सर्वथा अनित्य ठहर जायेगी तथा फिर नवीन वस्तु का उत्पाद होगा और जो है उसका नाश हो जायेगा। परन्तु यह व्यवस्था प्रमाण बाधित है। इसलिये वस्तु को