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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-यहाँ पर वक्ष और शाखा तथा घर और खम्भा दोनों ही अभिन्नता के दृष्टांत हैं। वृक्ष में शाखा जुदा पदार्थ नहीं है और घर में खम्भा जुदा पदार्थ नहीं है। इसी प्रकार"वृक्ष शाखावान् है" यह स्व-स्वामी सम्बन्ध भी अभिन्नता का है। इन्हीं अभिन्न आधार आधेय और अभिन्न कारक के समान गुण, पर्याय और द्रव्य को समझना चाहिये।
शंका समवायः समवायी यदि वा स्यात्सर्वथा तदेकार्थः ।
समुदायो वक्तव्यो न चापि समवायवानिति चेत् ॥ ८१॥ अर्थ-समवाय और समवायी अर्थात् गुण और दल दोनों ही सर्वशा एकार्थक ऐसी अवस्था में गुण समुदाय ही कहना चाहिये द्रव्य को कहने की कोई आवश्यकता नहीं है।
समाधान ८२ से ८४ तक तन्न यतः समुदायो नियत समुदायिनः प्रतीतत्त्वात् ।
व्यक्तप्रमाणसाधितसिद्धत्वाद्वा सुसिद्भदृष्टान्तात् ॥ ४२ ॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि समुदाय नियम से समुदायी का होता है। यह बात प्रसिद्ध प्रमाण से सिद्ध की हई है और प्रसिद्ध दष्टांत से भी यह बात सिद्ध होती है।
भावार्थ-यद्यपिसीकों का समूह ही सोहनी (झाडू) है तथापि सींकों के समुदाय से ही घर का कूड़ा दूर किया जाता है , सींकों से नहीं। इसलिये समुदाय और समुदायी कथंचित् भिन्न भी हैं और कथंचित् अभिन्न भी हैं ( दृष्टांत मोटा है केवल समदायांश में ही इसे घटित करना चाहिये।)
स्पर्शरसगंधतर्णा लक्षणभिन्जा यथा रसालफले ।
कथमपि हि पृथक्कर्तुं न तथा शम्यारस्वरवण्डदेशत्वात् ॥८३ ॥ अर्थ-यद्यपि आम के फल में स्पर्श, रस, गंध और रूप भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि इनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं तथापि सभी अखण्ड रूप से एकरूप हैं। किसी प्रकार जुदे-जुदे नहीं किये जा सकते।
भावार्थ-स्पर्श का ज्ञान स्पर्शन-इन्द्रिय से होता है। रस का ज्ञान रसना इन्द्रिय से होता है। गन्ध का ज्ञान नासिका से होता है और रूप का चक्षु से होता है। इसलिये ये चारों ही भिन्न-भिन्न लक्षण वाले हैं, परन्तु चारों का ही तादात्म्य सम्बन्ध है। कभी भी जुदे-जुदे नहीं हो सकते। इसलिये लक्षण भेद से भिन्न हैं। समुदाय रूप से अभिन्न हैं। अतएव गुण और गुणी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद स्पष्टता से सिद्ध है।
अतएव यथा वाच्या देशगुणांशा विशेषरूपत्वात् ।
वक्तव्यं च लथा स्याटेकं द्रव्यं त एव सामान्यात् ॥ ८ ॥ अर्थ-अतएव जैसे पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा देश-देशांश, गुण-गुणांश इन सबका कथन करना चाहिये वैसे ही द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से उन सबके स्थान में एक द्रव्य ही है ऐसा भी कथन करना चाहिये।
प्रमाण-श्लोक ७५ से ८४ का आशय श्री पंचास्तिकाय गाथा ४५ से ५२ पर से लिया गया है। पुनः द्रव्य का भेद-दृष्टि से निरूपण-दूसरे प्रकार से ८५ से १०२ तक
अथ चैतदेव लक्षणमेकं वाक्यान्तरप्रवेशेन ।
निष्पतिघप्रतिपत्त्यै विशेषतो लक्षयन्ति बुधाः ||८५॥ अर्थ-''गुणपर्ययवद्रव्यं" इसी एक लक्षण को निर्वाध प्रतीति के लिये वाक्यान्तर ( दूसरी पद्धति) द्वारा विशेष रीति से भी बुद्धिमान कहते हैं।
भावार्थ-अब द्रव्य का दूसरा लक्षण कहते हैं परन्तु वह दूसरा लक्षण उपर्युक्त (गुणपर्ययवद्र्व्यं ) लक्षण से भिन्न नहीं है किन्तु उसी का प्रकाशक है, विशद है, प्रगट करनेवाला है, उसके मर्म को खोलनेवाला है।