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प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक
२१
नहि किञ्चित्सद्दव्यं केचित्सन्तो गुणाः प्रदेशाश्च । केचित्सन्ति तदंशा द्रव्यं तत्सन्निपाताद्वा ॥ ७५ ॥
अर्थ - ऐसा नहीं है कि द्रव्य कोई जुदा पदार्थ हो, गुण कोई जुदा पदार्थ हो, प्रदेश जुदा पदार्थ हो, उन गुणों के अंश कोई जुदा पदार्थ हों और उन सबके मिलाप से द्रव्य कहलाता हो ।
अथवापि यथा भित्तौ चित्रे द्रव्ये तथा
प्रदेशाश्च ।
सन्ति गुणाश्च तदंशाः समवायित्वात्तदाश्रयादुद्द्रव्यम् ॥ ७६ ॥
अर्थ - अथवा ऐसा भी नहीं है कि जिस प्रकार भित्ति में चित्र खिंचा रहता है अर्थात् जैसे मिति में चित्र होता है वह भित्ति में रहता है परन्तु भित्ति से जुदा पदार्थ है उसी प्रकार द्रव्य में प्रदेश, गुण और उन गुणों के अंश रहते हैं और भित्ति की तरह समवाय सम्बन्ध से उनका आश्रय द्रव्य है ( भिन्न-भिन्न पदार्थों के घनिष्ट नित्य सम्बन्ध को समवाय 'सम्बन्ध कहते हैं। गुण- गुणों की भिन्न मानकर उनका नित्य सम्बन्ध नैयायिक दर्शन मानता है । )
भावार्थ - ऐसा नहीं है कि देश, देशांश, गुण, गुणांश चारों ही जुदे जुदे पदार्थ हों और उनका समूह द्रव्य कहलाता हो, किन्तु चारों ही अखण्ड रूप से द्रव्य कहलाते हैं। भेद विवक्षा से ही चार जुदी-जुदी संज्ञायें कहलाती हैं। अभेद विवक्षा से चारों ही अभिन्न हैं और चारों की उस अभिन्नता को द्रव्य कहते हैं।
इदमस्ति यथा मूलं स्कन्धः शाखा दलानि पुष्पाणि ।
गुच्छाः फलानि सर्वाण्येकालापात्तदात्मको वृक्षः ॥ ७७ ॥
अर्थ - जिस प्रकार जड़, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, पुष्प, गुच्छा, फल सभी मिलाकर एक शब्द से वृक्ष कहते हैं क्योंकि वह वृक्ष उनमूलादिमय है। वृक्ष, जड़, स्कन्ध शाखा आदि से भिन्न कोई पदार्थ नहीं है किन्तु इनका समुदाय ही वृक्ष कहलाता है अथवा वृक्ष को छोड़कर शाखादिक भिन्न कोई पदार्थ नहीं है। इसी प्रकार देश, देशांश, गुण, गुणांश का समूह ही द्रव्य है। द्रव्य से भिन्न न तो देशादिक ही है और देशादिक से भिन्न न द्रव्य ही है ।
यद्यपि भिन्नोऽभिन्नो दृष्टांतः कारकश्च भवतीह । ग्राह्यस्तथाप्यभिन्नो साध्ये चास्मिन् गुणात्मके द्रव्ये ॥ ७८ ॥
अर्थ - यद्यपि दृष्टांत और कारक भिन्न भी होते हैं और अभिन्न भी होते हैं। यहाँ गुण समुदाय रूप द्रव्य की सिद्धि में अभिन्न दृष्टांत और अभिन्न ही कारक ग्रहण करना चाहिये। खुलासा आगे किया जाता है:
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भिन्नोऽप्यथ दृष्टांतो भित्तौ चित्रं यथा दधीह घटे ।
भिन्नः कारक इतिवा कश्चिद्धनवान् धनस्य योगेन ॥ ७९ ॥
अर्थ- आधार आधेय की भिन्नता का दृष्टांत इस प्रकार है कि जैसे भित्ति में चित्र होता है अथवा घड़े में दही रक्खा है ( भित्ति भिन्न पदार्थ है और उस पर खिंचा हुआ चित्र दूसरा पदार्थ है। इसी प्रकार घट दूसरा पदार्थ है और उसमें रक्खा हुआ दही दूसरा पदार्थ है। इसलिये ये दोनों ही दृष्टांत आधार आधेय की भिन्नता में हैं) भिन्न कारक का दृष्टांत इस प्रकार है, जैसे कोई मनुष्य धन के निमित्त से धनवाला कहलाता है। यहाँ पर धन दूसरा पदार्थ है और पुरुष दूसरा पदार्थ है। धन और पुरुष का स्व-स्वामी सम्बन्ध कहलाता है। यह स्व-स्वामी सम्बन्ध भिन्नता का है।
भावार्थ- जिस प्रकार 'धनवान पुरुष' यह भिन्नता में स्व-स्वामी सम्बन्ध है, उस प्रकार 'गुणपर्यायवान् द्रव्य ' यह सम्बन्ध नहीं है अथवा जैसा आधार आधेय भाव भित्ति और चित्र में है वैसा गुण द्रव्य में नहीं है किन्तु कारक और आधार आधेय दोनों ही अभिन्न हैं ।
दृष्टांतश्चाभिन्नो वृक्षे
शाखा यथा गृहे स्तम्भः । अपि चाभिन्नः कारक इति वृक्षोऽयं यथा हि शाखावान् ॥ ८० ॥
अर्थ- आधार आधेय की अभिन्नता में दृष्टांत इस प्रकार है। जैसे वृक्ष में शाखा अथवा घर और खम्भा । कारक की अभित्रता में दृष्टांत इस प्रकार है जैसे यह वृक्ष शाखा वाला है।